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निशीथ सूत्र
- इन सूत्रों में अनेक व्रणों का वर्णन हुआ है। जैसा पहले विवेचित किया गया है, यदि साधु कर्मनिर्जरण का उदात्त भाव लिए हुए व्रण-जनित व्याधियों को आत्म-बल के साथ सहन करे तो यह बहुत ही उत्तम है। क्योंकि कर्म क्षय ही उसके जीवन का लक्ष्य है। समस्त कर्मों का क्षय होने से ही मोक्ष प्राप्त होता है।
सभी में ऐसा आत्म-बल हो, यह संभव नहीं है। जो असह्य वेदना को अविचलित भाव से न सह सके, उसके लिए निर्दोष, निरवद्य, शल्य क्रिया का चिकित्सा की दृष्टि से उपयोग किया जाना दोष नहीं माना गया है। किन्तु यदि उसका मन व्रण-जनित व्याधि पर ही टिका रहे तथा जैसाकि उपर्युक्त सूत्रों में निरूपित हुआ है, अनेक प्रकार से वह उनका प्रतिकार करे तो - वैसा करना साधुजीवनोचित नहीं है। वहाँ उसका आध्यात्मिक साधना पक्ष गौण हो जाता है। उसकी दृष्टि में शरीर और उसकी व्याधि ही उद्दिष्ट रहती है। यह आसक्तिपूर्ण, मोहाच्छन्न अवस्था है, परित्याज्य है, दोष युक्त है। वैसा करने वाला प्रायश्चित्त का भागी होता है। ___ यहाँ विशेष रूप से यह ज्ञातव्य है कि जिनकल्पी साधु किसी भी स्थिति में, व्रण आदि का किसी भी प्रकार का उपचार नहीं करते। क्योंकि जिनकल्प साधना का तीव्रतम रूप है, रोग, व्याधि आदि आमरणान्त कष्ट आने पर भी वे उसे समभाव से संहते हैं, उपचार या चिकित्सा द्वारा उसका जरा भी प्रतिकार नहीं करते। ___ स्थविरकल्पी साधुओं की आचार-मर्यादा के अनुसार यदि व्याधि, व्रण आदि की पीड़ा असह्य हो जाए तो शरीर को संयममय साधना का उपकरण मानते हुए, ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप की अभिवृद्धि, जन-जन में शुद्ध धर्म का प्रसार तथा अन्ततः समाधिपूर्ण मरण की प्राप्ति इत्यादि को उद्दिष्ट करते हुए साधु आसक्ति रहित, औदासीन्य युक्त, स्पृहा वर्जित उज्ज्वल विशुद्ध परिणामों के साथ शल्य क्रिया आदि चिकित्सोपचार करे तो वह विहित है। उसमें उसे प्रायश्चित्त नहीं आता। यदि उस चिकित्सोपचार में संयम से विपरीत कुछ भी प्रवृत्ति हुई हो उसका प्रायश्चित्त तो आता है।
अपानोदर - कृमि-निहरण-प्रायश्चित्त जे भिक्खू अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए णिवेसिय निर्वसिय गहिरइ गहिरंतं वा साइजद। ४०।।
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