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________________ ७६ विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध निर्दयता के साथ मारते हैं और दयाजनक स्थिति रखने वाले उस पुरुष को काकिणी मांस-उसकी देह से निकाले हुए छोटे छोटे मांस खण्ड खिलाते तथा रुधिर का पान कराते हैं। तदनन्तर दूसरे चत्वर पर आकर उसके सामने उसकी आठ चाचियों को लाकर बड़ी क्रूरता से पीटते हैं। इसी प्रकार तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे, सातवें, आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें, पन्द्रहवें, सोलहवें, सतरहवें और अठारहवें चौतरे पर भी उसके निजी संबंधियों को कशा (चाबुक) से पीटते हैं। इस वर्णन में उस समय की दंड की भयंकरता का निर्देश किया गया है। दण्डित व्यक्ति के अलावा उसके परिवार को भी दण्ड देना, दण्ड की पराकाष्ठा है। परन्तु इसके पीछे यह भावना भी रही होगी कि भविष्य में अगर किसी ने अपराध किया तो अपराधी के अतिरिक्त उसके सगे संबंधी भी दण्डित होने से नहीं बच सकेंगे ताकि आगे अपराध की बहुलता न हो। सगे संबंधियों के सामने मारने पीटने का अर्थ - दोषी या अपराधी को अधिकाधिक दुःखित करना होता है अथवा महाबल राजा ने क्रोधावेश के कारण वध्य व्यक्ति के निर्दोष परिवार को भी मारने की आज्ञा दे दी हो। विशेष तो ज्ञानी कहे वही प्रमाण है। . "मित्तणाइ णियगसयणसंबंधी परियणं" की व्याख्या टीकाकार ने इस प्रकार की है "मित्राणि सुहृदाः ज्ञातयः-समानजातीयाः, निजका:-पिता मातरश्चय, स्वजना:मातुलपुत्रादयः सम्बन्धिन - श्वसुर सालादयः, परिजन-दासीदासादिस्ततो द्वन्द्वः अतस्तान् तत्।" __ अर्थात् - 'मित्र' अर्थात् सुहृद-जो साथी, सहायक और शुभ चिंतक हो उसे मित्र कहते हैं। 'जाति' शब्द से समान जाति (बिरादरी) वाले व्यक्तियों का ग्रहण होता है। 'निजक' पद माता-पिता आदि का बोधक है। 'स्वजन' शब्द मामा के पुत्र आदि का परिचायक है। श्वसुर, साला आदि का ग्रहण सम्बन्धी' शब्द से होता है। परिजन दास और दासी आदि का नाम है। पूर्वभव पृच्छा तए णं से भगवं गोयमे तं पुरिसं पासइ पासित्ता इमे एयासवे अथिए समुप्पण्णे जाव तहेव णिग्गए एवं वयासी-एवं खलु अहं णं भंते! तं चेव जाव से णं भंते! पुरिसे पुव्वभवे के आसी जाव विहरइ? ॥७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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