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________________ नववां अध्ययन - देवदत्ता की याचना १८५ ........................................................... भावार्थ - तदनन्तर महाराजा वैश्रमण अश्ववाहनिका-अश्व क्रीड़ा से वापिस आकर अपने अभ्यंतर स्थानीय-अंतरंग पुरुषों को बुलाते हैं बुलाकर उन्हें इस प्रकार कहते हैं कि - हे देवानुप्रियो! तुम जाओ और जाकर यहाँ के प्रतिष्ठित सेठ दत्त की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता नाम की कन्या को युवराज पुष्यनंदी के लिए भार्या रूप से मांग करो। यद्यपि वह स्वकीय राज्य लभ्या है अर्थात् वह यदि राज्य देकर भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेने योग्य है। . महाराजा वैश्रमण की इस आज्ञा को शिराधार्य करके वे अभ्यंतर स्थानीय पुरुष स्नानादि कर, शुद्ध तथा राजसभा आदि में प्रवेश करने योग्य उत्तम वस्त्र पहन कर जहाँ दत्त गाथापति का घर था वहाँ आते हैं। दत्त सेठ भी उन्हें आते देख कर प्रसन्नता पूर्वक आसन से उठ कर सात आठ कदम आगे जाता है और उनका स्वागत कर आसन पर बैठने की प्रार्थना करता है। तदनन्तर आस्वस्थ-गतिजनित श्रम के दूर होने से स्वस्थ तथा विस्वस्थ-मानसिक क्षोभ के न रहने के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त करते हुए एवं सुख पूर्वक उत्तम आसनों पर बैठे हुए उन अंतरंग पुरुषों से सेठ दत्त इस प्रकार कहता है - 'हे देवानुप्रियो! आपका यहाँ आने का क्या प्रयोजन है? मैं आपके आगमन का हेतु जानना चाहता हूँ।' तब वे राजपुरुष दत्त सेठ से इस प्रकार कहने लगे - 'हे महानुभाव! हम आप की पुत्री और कृष्णश्री की आत्मजा देवदत्ता बालिका को युवराज पुष्यनन्दी के लिये भार्या रूप से मांगने के लिये आये हैं। यदि हमारी यह मांग आपको संगत, अवसर प्राप्त, श्लाघनीय और इन दोनों का संबंध अनुरूप जान पड़ता हो तो देवदत्ता को युवराज पुष्यनंदी के लिए दे दो और कहो कि आपको क्या शुल्क-उपहार दिलवाया जाय?' तदनन्तर वह दत्त उन अभ्यन्तर स्थानीय पुरुषों से इस प्रकार बोला - हे देवानुप्रियो! यही मेरे लिए शुल्क-उपहार है कि महाराजा वैश्रमण मुझे इस बालिका के निमित्त अनुगृहीत कर रहे हैं। इस प्रकार कहने के बाद उन स्थानीय पुरुषों का दत्त सेठ पुष्प, वस्त्र, गंध, माला और अलंकारादि से यथोचित सत्कार करता है और उन्हें सम्मान पूर्वक विसर्जित करता है। तत्पश्चात् वे स्थानीय पुरुष वैश्रमण राजा के पास आये और आकर उनको उक्त सारा वृत्तांत कह सुनाया। . . विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में वैश्रमण नरेश के द्वारा दत्त पुत्री देवदत्ता की याचना और दत्त की उसके लिए स्वीकृति देना आदि का वर्णन किया गया है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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