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________________ १८४ . विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध .......................................................... तए णं से दत्ते सत्थवाहे ते पुरिसे एज्जमाणे पासइ, पासित्ता हट्टतुट्ठ० आसणाओ अब्भुढेइ, अब्भुढेत्ता सत्तट्ठ पयाई पच्चुग्गए आसणेणं उवणिमंतेइ, उवणिमंतेत्ता ते पुरिसे आसत्थे वीसत्थे सुहासणवरगए एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया! किं आगमणप्पओयणं? तए णं ते रायपुरिसा दत्तं सत्थवाहं एवं वयासी-अम्हे णं देवाणुप्पिया! तव धूयं कण्हसिरीए अत्तयं देवदत्तं दारियं पूसणंदिस्स जुवरण्णो भारियत्ताए वरेमो। तं जइ णं जाणासि देवाणुप्पिया! जुत्तं वा पत्तं वा सलाहणिज्जं वा सरिसो वा संजोगो दिज्जउ णं देवदत्ता दारिया पूसणंदिस्स जुवरण्णो, भण देवाणुप्पिया! किं दलयामो सुक्कं? ... ___तए णं से दत्ते ते अभिंतरठाणिज्जे पुरिसे एवं वयासी-एवं चेव णं देवाणुप्पिया! मम सुक्कं जं णं वेसमणे राया मम दारिया णिमित्तेणं अणुगिण्हइ, ते अन्भिंतर ठाणिज्जपुरिसे विउलेणं पुप्फवत्थगंधमल्लालंकारेणं सक्कारेइ० पडिविसजेइ। तए णं ते ठाणिज्जपुरिसा जेणेव वेसमणे राया तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता वेसमणस्स रण्णो एयमढें णिवेदेति॥१५४॥ कठिन शब्दार्थ - आसवाहणियाओ -- अश्व वाहनिका-अश्वक्रीड़ा से, अन्भितरट्ठाणिज्जे- अभ्यन्तर स्थानीय-निजी नौकर, खास आदमी अथवा नजदीक के सगे संबंधी, सयरज्जसुक्का - स्वकीय राज्यलभ्या है अर्थात् यदि राज्य के बदले भी प्राप्त की जा सके तो भी ले लेनी योग्य है, सुद्धप्पावेसाई - शुद्ध तथा राजसभा आदि में प्रवेश करने योग्य, वत्थाई पवरपरिहिया - प्रधान-उत्तम वस्त्रों को धारण किये हुए, सत्तट्ठपयाई - सात आठ पैर-कदम, अब्भुग्गए - आगे जाता है, उवणिमंतेति - निमंत्रित करता है, आसत्थे - आस्वस्थगतिजन्य श्रम के न रहने से स्वास्थ्य-शांति को प्राप्त हुए, विसत्थे - विस्वस्थ-मानसिक क्षोभ के अभाव के कारण विशेष रूप से स्वास्थ्य को प्राप्त हुए, सुहासणवरगए - सुखपूर्वक उत्तम आसनों पर बैठे हुए, संदिसंतु णं - आप फरमावें, किमागमणप्पओयणं - आपके आगमन का क्या प्रयोजन है? जुवरण्णो - युवराज के लिए, भारियत्ताए - भार्या रूप से, वरेमो - मांगते हैं, जुत्तं - युक्त-हमारी प्रार्थना उचित, पत्तं - प्राप्त-अवसर प्राप्त, सलाहणिज्जं - श्लाघनीय, संजोगो - वरवधू संयोग, सुक्को - शुल्क-उपहार, ठाणपुरिसे - स्थानीय पुरुषों का, मल्लालंकारेणं - माला तथा अलंका मे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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