SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०६ . विपाक सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ........................................................... सम्यक् प्रकार में रोके हुए रहते थे। वहां उसके ऐसे पुरुष जिनको वेतन के रूप में रुपया, पैसा और भोजन दिया जाता था, अनेक अजादि यावत् महिषादि पशुओं का संरक्षण तथा संगोपन करते हुए उनकों घरों में रोके रहते थे। और दूसरे अनेक पुरुष जिनको वेतन के रूप में रुपया पैसा तथा भोजन दिया जाता था अनेक अजों को यावत् महिषों को जो कि सैंकड़ों तथा हजारों की संख्या में थे जीवन से रहित किया करते थे और उनके मांस को कैंची अथवा छुरी के द्वारा टुकड़े करके छण्णिक छागलिक को लाकर देते थे। उसके अनेक नौकर पुरुष उन मांसों को तवों, कवल्लियों, भर्जनकों और अंगारों पर तलते, भूनते और शूल द्वारा पकाते हुए उन मांसों को राजमार्ग में बेच कर आजीविका चलाते थे। . छण्णिक छागलिक स्वयं भी तले हुए, भूने हुए और शूल द्वारा पकाये हुए उन मांसों के साथ सुरा आदि पंचविध मद्यों का आस्वादनादि करता हुआ जीवन व्यतीत कर रहा था। छणिक का नरक उपपात तए णं से छणिए छागलिए एयकम्मे एयप्पहाणे एयविजे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं कलिकलुसं समज्जिणित्ता सत्त-वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा चोत्थीए पुढवीए उक्कोसेणं दससागरोवमठिइएसु णेरइयत्ताए उववण्णे॥२॥ . भावार्थ - तदनन्तर वह छण्णिक छागलिक इस प्रकार के कर्म का करने वाला, इस कर्म में प्रधान, इस प्रकार के कर्म के विज्ञान वाला तथा इस कर्म को अपना सर्वोत्तम आचरण बनाने वाला, क्लेशजनक और मलिन रूप अत्यधिक पाप कर्म का उपार्जन कर सात सौ वर्ष की परम आयु भोग कर काल मास में काल करके उत्कृष्ट दस सागरोपम की स्थिति वाले नरयिकों में नैरयिक रूप से चौथी नरक में उत्पन्न हुआ। .. __ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर स्वामी ने दृष्ट व्यक्ति के पूर्वभव का वर्णन किया। वह पूर्वभव में छणिक नामक छागलिक था जो अपनी सावध जीवनचर्या के कारण अधार्मिक, अधर्माभिरुचि, अधर्मानुरागी और अधर्माचारी था। छण्णिक छागलिक केवल मांस विक्रेता ही नहीं था अपितु वह स्वयं भी नाना प्रकार की मदिराओं के साथ मांस भक्षण किया करता था। इस प्रकार मांस विक्रय और मांसभक्षण के द्वारा उसने जिन पापकर्मों का उपार्जन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy