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________________ चतुर्थ अध्ययन - शकटकुमार की दुर्दशा १०७ ........................................................... किया उनके फलस्वरूप ही वह चौथी नरक में नैरयिक रूप से उत्पन्न हुआ। वहां की भवस्थिति को पूरा करने के बाद उसने कहां जन्म लिया अब सूत्रकार उसका वर्णन करते हैं - शकटकुमार की दुर्दशा - तए णं तस्स सुभद्द-सत्थवाहस्स भद्दा भारिया जायणिंदुया यावि होत्था। जाया-जाया दारगा विणिहायमावज्जंति। तए णं से छणिए छागलिए चोत्थीए पुढवीए अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव साहंजणीए णयरीए सुभद्दस्स सत्थवाहस्स भद्दाए भारियाए कुच्छिंसि पुत्तत्ताए उववण्णे। तए णं सा भद्दा सत्थवाही अण्णया कयाइ णवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। तए णं तं दारगं अम्मापियरो जायमेत्तं चेव.सगडस्स हेट्ठाओ ठावेंति० दोच्चंपि गिण्हावेंति अणुपुव्वेणं सारक्खेंति संगोवेंति संवढेति जहा उज्झियए जाव जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्ते चेव सगडस्स हेट्ठा ठाविए तम्हा णं होउ णं अम्हं एस दारए सगडे णामेणं, सेसं जहा उज्झियए सुभद्दे लवणसमुद्दे कालगए मायावि कालगया। से वि सयाओ गिहाओ णिच्छुढे ।।३॥ कठिन शब्दार्थ - जायणिंदुया - जात निन्दुका-जिसके बच्चे उत्पन्न होते ही मर जाते हों, ऐसी, जाया-जाया - उत्पन्न होते होते, दारगा - बालक, विणिहायमावज्जंति - विनाश को प्राप्त हो जाते थे, सगडस्स - शकट-छकड़े के, हेट्टओ - नीचे, णिच्छूढे - निकाल दिया गया। . भावार्थ - तदनन्तर सुभद्र सार्थवाह की भद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका थी, उसके उत्पन्न होते ही बालक मर जाते थे इधर छणिक नामक छागलिक (वधिक) का जीव चौथी नरक से निकल कर सीधा इसी साहजनी नगरी में सुभद्र सार्थवाह की भद्रा भार्या के गर्भ में पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। लगभग नौ मास पूरे हो जाने पर किसी समय सुभद्रा सार्थवाही ने बालक को जन्म दिया। उत्पन्न होते ही माता-पिता उस बालक को शकट-छकड़े के नीचे स्थापित करते हैं और फिर उठा लेते हैं, उठा कर उसका यथाविधि संरक्षण, संगोपन और संवर्द्धन करते हैं। .. उज्झितक कुमार की तरह यावत् जात मात्र उत्पन्न होता ही हमारा यह बालक शकटछकड़े के नीचे स्थापित किया गया था इसलिए इसका 'शकटकुमार' ऐसा नामकरण किया जाता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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