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________________ तृतीय अध्ययन - राजा का प्रयास से भी, गेण्हित्तए - पकड़ने में, उवप्पयाण - उप प्रदान से-दान की नीति से, वीसंभमाणेविश्वास में लाने के लिए, सीसगभमा- शिर या शिर के कवच समान, अम्भिंतरगा - अंतरंग-समीप में रहने वाले। भावार्थ - तदनन्तर वह दण्डनायक (कोतवाल) जहाँ अभग्नसेन चोर सेनापति था वहाँ आता है आकर उसके साथ युद्ध में प्रवृत्त हो जाता है। तब वह अभग्न सेनापति उस दण्डनायक को शीघ्र ही हतमथित कर अर्थात् उस दण्ड नायक की सेना का हनन कर-मारपीट कर और उस दण्डनायक के मान का मर्दन कर यावत् भगा देता है। तब वह दण्डनायक, अभग्नसेन चोर सेनापति के द्वारा हत यावत् प्रतिषिद्ध हुआ। तेजहीन, बलहीन, वीर्यहीन, पुरुषार्थ तथा पराक्रम से हीन हुआ शत्रु सेना को पकड़ना कठिन है ऐसा विचार कर जहाँ पुरिमताल नगर था और जहाँ पर महाबल राजा था वहाँ पर आता है आकर दोनों हाथ जोड़ मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके इस प्रकार कहने लगा-'हे स्वामिन्! अभग्नसेन चोर सेनापति विषम-ऊंचा नीचा दुर्ग जिस में कठिनता से प्रवेश किया जा सके ऐसे गहन-वृक्ष वन में पर्याप्त भक्त पानादि के साथ अवस्थित है अतः बहुत से अश्वबल, हस्तिबल, योद्ध-बल और रथबल से अथवा चतुरंगिणी सेना से भी वह साक्षात् जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता। - दण्डनायक के इस प्रकार कहने पर महाबल राजा उस अभग्नसेन को सामनीति से, भेदनीति से अथवा उपप्रदान से-दान की नीति से विश्वास में लाने के लिए प्रयत्न करने लगा और जो भी उसके शिष्य तुल्य समीप रहने वाले मंत्री आदि पुरुषों को अथवा जिन अंगरक्षकों को वह शिर या शिर के कवच समान मानता था उनको तथा मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन संबंधी और परिजनों को धन, सुवर्ण, रत्न तथा उत्तम सार भूत द्रव्यों और रुपयों पैसों का प्रलोभन देकर उससे भिन्न-अलग करता है और अभग्नसेन बारबार महार्थ, महाप्रयोजन वाले, महार्य-विशेष मूल्यवान और महार्ह-किसी बड़े पुरुष को देने योग्य, राजा के योग्य भेंट भेजता है और अभग्नसेन चोर सेनापति को विश्वास में लाता है। विवेचन - प्रस्तुतं सूत्र में अभग्नसेन के निग्रह के लिये महाबल राजा ने जो उपाय किये, उसका वर्णन किया गया है। . . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004199
Book TitleVipak Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2007
Total Pages362
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_vipakshrut
File Size7 MB
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