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________________ ******************** मन:पर्यवज्ञान का स्वामी ७५ *************************** उत्तर - गौतम! सम्मूर्छिम मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता, किन्तु गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है। विवेचन - सम्मूछिम मनुष्य-जो मनुष्य, माता-पिता के संयोग के बिना उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'सम्मूछिम मनुष्य' कहते हैं। ये मनुष्य के मलमूत्र आदि चौदह स्थानों में उत्पन्न होते हैं। ये अंगुल के असंख्येय भाग की अवगाहना वाले अन्तर्मुहूर्त की स्थिति वाले, मनुष्य जैसी ही आकृति वाले और मन रहित होते हैं। गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्य-जो मनुष्य माता-पिता के पुद्गल संयोग से, माता के गर्भाशय में उत्पन्न होते हैं और माता के गर्भ से बाहर निकलते होते हैं तथा मन वाले होते हैं, उन्हें 'गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य' कहते हैं। (प्रज्ञापना १) । मनःपर्यायज्ञान, सम्मूछिम मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उनमें कोई सर्व-विरत साधु नहीं बन सकता, यह ज्ञान केवल गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को ही उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि उन्हीं में कोई सर्व-विरत साधु बनते हैं। ___ जइ गम्भवक्कंतियमणुस्साणं किं कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अंतरदीवग-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? गोयमा! कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अंतरदीवग-गब्भवक्कंतिय-मणुस्साणं। प्रश्न - यदि गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को ही मन:पर्याय ज्ञान उत्पन्न होता है, तो क्या कर्मभूमिज गर्भ-व्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को उत्पन्न होता है या अकर्म-भूमिज मनुष्यों को उत्पन्न होता है या मनुष्यों को मनःपर्यायज्ञान उत्पन्न होता है ? उत्तर - गौतम! कर्म भूमिज गर्भोत्पन्न मनुष्यों को ही मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है, अकर्मभूमि और अन्तरद्वीपज के गर्भज मनुष्यों को नहीं होता। - विवेचन - कर्मभूमिज - जिस भूमि में सदा या किसी समय भी राज्य वाणिज्य, कृषि आदि लौकिक कर्म या सम्यक् चारित्र सम्यक् तपादि लोकोत्तर धर्म चलते हों, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं। पांच भरत, पांच ऐरवत और पाँच महाविदेह, ये १५ कर्मभूमियाँ हैं। जो इनमें उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'कर्मभूमिज' कहते हैं। · अकर्मभूमिज - जिस क्षेत्र में किसी भी समय उपर्युक्त लौकिक या लोकोत्तर कर्म नहीं चलते १० प्रकार के कल्पवृक्षों से काम चलता है, उसे अकर्मभूमिज कहते हैं। ये पांच देव-कुरु, पाँच उत्तरकुरु पाँच हेमवत, पाँच, हैरण्यवत, पाँच हरिवर्ष, पाँच रम्यकवर्ष ये ३० अकर्मभूमियाँ हैं। जो इनमें उत्पन्न होते हैं, उन्हें 'अकर्मभूमिज' कहते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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