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________________ नन्दी सूत्र मन: पर्यायज्ञान, केवल रूपी द्रव्य को ही जानने वाला है, अतः मनःपर्यायज्ञानी, मन: पर्यायज्ञान के द्वारा केवल द्रव्य मन को ही साक्षात् जानते हैं, परन्तु अरूपी भाव मन को नहीं जान सकते। ७४ ********************* *********** ********************************* भाव मन में जिस प्रकार मनन होता है विचार धाराएं चलती है, उसी के अनुसार द्रव्य मन भी होता है। यदि भाव मन प्रशस्त हुआ, तो द्रव्य मन भी प्रशस्त वर्ण, प्रशस्त गंध, प्रशस्त रस, प्रशस्त स्पर्श और प्रशस्त संस्थान वाला होता है। यदि भाव मन अप्रशस्त हुआ, तो द्रव्य मन भी अप्रशस्त वर्ण, अप्रशस्त गंध, अप्रशस्त रस, अप्रशस्त स्पर्श और अप्रशस्त संस्थान वाला होता है। मन: पर्यायज्ञानी, द्रव्य मन के वर्णादि पर्यायों को जानकर अनुमान से यह निश्चय करते हैं कि 'अमुक संज्ञी जीव के अमुक विचार होने ही चाहिए, क्योंकि द्रव्य मन की ऐसी वर्णादि पर्यायें तभी हो सकती हैं, जबकि अमुक प्रकार का भाव मन हो अन्यथा नहीं हो सकती । जैसे मन को जानने वाले मानस शास्त्री, मन को साक्षात् नहीं देखते। वे मन के अनुरूप मुख पर आने वाली भाव भंगिमाओं को साक्षात् देखकर अनुमान से यह निश्चय करते हैं कि - 'इसके अमुक विचार होने चाहिए, क्योंकि मुख पर ऐसी भाव भंगिमाएं तभी उत्पन्न हो सकती हैं जबकि इसके मन में अमुक प्रकार का भाव हो । अब सूत्रकार, शिष्य की जिज्ञासा पूर्ति के लिए अवधिज्ञान के समान मनः पर्यायज्ञान के विषय में तीन बातें बतायेंगे - १. मनः पर्यायज्ञान किन्हें होता है, २. मन: पर्यायज्ञान के कितनें भेद हैं और ३. मनःपर्यायज्ञान से कितने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जाने जाते हैं । सर्वप्रथम 'मनः पर्यायज्ञान किसे होता है', यह बतलाने वाला पहला 'स्वामी द्वार' कहते हैं । मन: पर्यायज्ञान - १. मनुष्यों को उत्पन्न होता है (मनुष्य पुरुष, मनुष्य स्त्री और मनुष्य नपुंसक को उत्पन्न होता है ( भगवती ८, २), क्योंकि इनमें सर्व-विरत साधु होते हैं (भगवती २५ - ६)। २. अमनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता, मनुष्यगति से इतर नारक, तिर्यंच और देवों को उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि इनमें सर्व-विरत साधु ही नहीं होते । मनः पर्यवज्ञान का स्वामी Jain Education International ज मणुस्साणं किं संमुच्छिममणुस्साणं, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं ? गोयमा ! णो संमुच्छिममणुस्साणं, गब्भवक्कंतियमणुस्साणं उप्पज्जइ ॥ प्रश्न - यदि मनुष्यों को उत्पन्न होता है, तो क्या सम्मूच्छिम मनुष्यों को होता है या गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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