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________________ मन:पर्याय ज्ञान ************+-+-nel ७३ **** * *** * ******** अवधिक्षेत्र' और उत्कृष्ट 'उत्कृष्ट अवधिक्षेत्र तक देख सकते हैं। देव जघन्य अंगुल के असंख्येय भाग को देखते हैं। (यह जघन्य अवधिक्षेत्र की अपेक्षा बड़ा क्षेत्र है।) उत्कृष्ट लोक की देशोन त्रसनाल तक देखते हैं। ३. काल की अपेक्षा - नारक जघन्य अन्तर्दिवस और उत्कृष्ट अनेक दिवस भूत भविष्य काल को जानते हैं। तिर्यंच जघन्य आवलिका का असंख्येय भाग, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग भूत भविष्य काल जानते हैं। मनुष्य जघन्य आवलिका का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट चक्र भत भविष्य काल को जानते हैं। देव. जघन्य आवलिका का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट लोक के अनेक संख्येय भाग क्षेत्र को जानते हैं। ४. पर्याय की अपेक्षा - चारों ही गति के जीव जघन्य से भी और उत्कृष्ट से भी रूपी द्रव्य के अनन्त पर्यव जानते हैं। अवधिज्ञान की स्थिति जघन्य एक समय और उत्कृष्ट ६६ सागर है। अवधिज्ञान और विभंगज्ञान दोनों की मिलाकर स्थिति दो छासठ सागर है। (प्रज्ञापना १८, १०) से त्तं ओहिणाणपच्चक्खं ॥१६॥ यह वह अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है। अब जिज्ञासु मनःपर्याय ज्ञान के स्वरूप को जानने के लिए पूछता है - मनःपर्याय ज्ञान से किं तं मणपजवणाणं? मणपज्जवणाणे णं भंते! किं मणुस्साणं उप्पज्जइ, अमणुस्साणं? गोयमा! मणुस्साणं, णो अमणुस्साणं। प्रश्न - वह मन:पर्यायज्ञान क्या है? - हे भगवन्! मनःपर्यायज्ञान क्या मनुष्यों को उत्पन्न होता है या अमनुष्यों को (उत्पन्न होता है)? उत्तर - हे गौतम! मनःपर्यायज्ञान मनुष्यों को उत्पन्न होता है, अमनुष्यों को नहीं। विवेचन - जिस ज्ञान के द्वारा पर के मन की पर्यायें जानी जाय, उसे 'मन:पर्यायज्ञान' कहते हैं। मन दो प्रकार का है - १. द्रव्य मन और २. भाव मन। जीव में ज्ञानावरणीय कर्म के तथाविध क्षयोपशम से जो मनन करने की लब्धि होती है तथा मनन रूप उपयोग चलता है, ये दोनों 'भावमन' कहलाते हैं तथा उस मनन क्रिया में सहकारी भूत जो मनःपर्याप्ति के द्वारा मनोवर्गणा . के पुद्गल ग्रहण कर मन रूप में परिणत किये जाते हैं, वे 'द्रव्य मन' हैं। भाव मन जीवमय है और अरूपी है तथा द्रव्य मन पुद्गलमय है और रूपी है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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