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________________ ७२ नन्दी सूत्र *********************** *-*-*-*-* ************** **40444 4 4******** ******** ** आमरण अप्रतिपाति अवधिज्ञान होता है। तीर्थंकरों को भी अप्रतिपाति अवधिज्ञान होता है, क्योंकि वह केवलज्ञान की उत्पत्ति के एक क्षण पूर्व तक निश्चित रूप से विद्यमान होता है। ३. अथवा देव, नारक और तीर्थंकरों को नियम से सम्बद्ध अवधिज्ञान होता है अर्थात् वे जिस क्षेत्र में रहते हैं, वहाँ से निरन्तर अपने अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र जाना जा सकता है, उतना सभी संलग्न क्षेत्र जानते हैं। ४. अथवा देव, नारक और तीर्थंकरों को नियम से आनुगामिक अवधिज्ञान होता है। . ५. अथवा देव, नारक और तीर्थंकर सभी दिशाओं में जानते हैं। उन्हें मध्यगत अवधिज्ञान होता है। शेष विकल्प से देश से देखते हैं अर्थात् शेष मनुष्य और तिर्यंचों में किसी को अवधिज्ञान होता है और किसी को नहीं होता। मनुष्यों में किसी को गर्भ के प्रथम समय से पूर्व जन्म का अवधिज्ञान हो सकता है, किसी को पीछे पर्याप्त होने पर उत्पन्न हो सकता है। तिर्यंचों को नियम से पर्याप्त होने के पश्चात् ही अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है। मनुष्यों में और तिर्यंचों में प्रतिपाति अप्रतिपाति दोनों प्रकार का अवधिज्ञान हो सकता हैं। मनुष्यों में आमरण अप्रतिपाति और आकेवल अप्रतिपाति-दोनों प्रकार का अप्रतिपाति अवधिज्ञान हो । सकता है, परन्तु तिर्यंचों में आमरण अप्रतिपाति ही हो सकता है। आकेवल अप्रतिपाति नहीं हो सकता। ___मनुष्यों और तिर्यंचों में सम्बद्ध और असम्बद्ध दोनों प्रकार का अवधिज्ञान हो सकता है। आनुगामिक और अनानुगामिक, इन दो प्रकारों का भी हो सकता है। अन्तगत और मध्यगत-इन दोनों प्रकार का भी हो सकता है। विशेष - देव और नारक, अवस्थित अवधिज्ञान वाले होते हैं। तीर्थंकर अवस्थित या वर्द्धमान अवधिज्ञान वाले होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच अवस्थित वर्द्धमान, हीयमान या तदुभय अवधिज्ञान वाले भी हो सकते हैं (प्रज्ञापना ३३)। १. द्रव्य की अपेक्षा - नारक और तिर्यंच १. औदारिक २. वैक्रिय ३. आहारक और ४. तैजस् वर्गणा के गुरुलघु पुद्गल ही देख सकते हैं। मनुष्य और देव अभी कहे हुए ये चार तथा ५. भाषा ६. मन एवं ७ कार्मण वर्गणा के अगुरुलघु पुद्गल भी देख सकते हैं। मनुष्य, परमाणु संख्य प्रदेशी, असंख्य प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी पुद्गल देख सकते हैं। शेष नारक, तिर्यंच और देव, अनन्त प्रदेशी पुद्गल ही देख सकते हैं। २. क्षेत्र की अपेक्षा - नारक, जघन्य आधा कोस उत्कृष्ट चार कोस देखते हैं। तिर्यंच जघन्य, जघन्य अवधिक्षेत्र और उत्कृष्ट असंख्य द्वीप समुद्र तक देख सकते हैं। मनुष्य जघन्य, 'जघन्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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