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अवधिज्ञान का उपसंहार
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२. असंख्यभाग हीन, कोई ३. संख्यभाग हीन, कोई ४. संख्यगुण हीन, कोई ५. असंख्यगुण हीन तथा कोई ६. अनंतगुण हीन जानते हैं। ___ अब सूत्रकार अवधिज्ञान का चौथा चूलिका द्वार कहते हैं। उसमें अवधिज्ञान के स्वरूप के विषय में अब तक जो कुछ कहा गया, उसका कथन करते हैं।
अवधिज्ञान का उपसंहार ओही भवपच्चइओ गुणपच्चइओ य वण्णिओ दुविहो। तस्स य बहू विगप्पा, दव्वे खित्ते य काले य॥६३॥
अर्थ - भवप्रत्यय और गुणप्रत्यय, यों दो प्रकार के अवधिज्ञान का वर्णन किया गया। अवधिज्ञान से बहुत के विकल्प-भेद बतलाये गये और द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव बतलाये गये।
विवेचन - १. अवधिज्ञान के प्रथम स्वामी द्वार में अवधिज्ञान के भव-प्रत्यय और गुणप्रत्यय-क्षायोपशमिक, ये दो भेद बतलाकर उनके स्वामी बतलाये गये। ____२. दूसरे भेद द्वार में, अवधिज्ञान के आनुगामी, अनानुगामी, वर्द्धमान, हीयमान, प्रतिपाति और अप्रतिपाति-ये छह मूल भेद और अन्तगत, मध्यगत आदि कई उत्तर भेद बतलाये गये।
३. तीसरे विषय द्वार में, अवधिज्ञानी, जघन्य से और उत्कृष्ट से कितने द्रव्य, कितना क्षेत्र, कितना काल और कितने भाव जानते हैं-यह बतलाया गया।
अब सूत्रकार कुछ उक्त का और कुछ अनुक्त का संग्रह कर बताते हैं - णेरइयदेवतित्थंकरा य, ओहिस्सऽबाहिरा हुंति। पासंति सव्वओ खलु, सेसा देसेण पासंति॥६४॥ से तं ओहिणाणपच्चक्खं ॥१६॥
अर्थ - देव, नारक और तीर्थंकर नियम से अवधि से अबाह्य होते हैं। वे नियम से सभी ओर देखते हैं, शेष विकल्प से देशतः देखते हैं। यह अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है।
विवेचन - १. देव और नारकों को अवधिज्ञान अवश्य होता है अथवा उन्हें जन्म से ही अवधिज्ञान होता है अर्थात् भव-प्रत्यय अवधिज्ञान होता है। छद्मस्थ तीर्थंकरों को भी जन्म से ही अवधिज्ञान होता है। क्योंकि तीर्थंकर को भव के साथ अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नियम से होता है।
. २. अथवा देव और नारकों को नियम से मृत्यु पर्यन्त अवधिज्ञान रहता है, अर्थात् उन्हें
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