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________________ ७६ नन्दी सूत्र ********************************* ******************** अन्तरद्वीपज - लवणसमुद्र के अन्तर्गत एकोरुक आदि जो ५६ द्वीप हैं, उन्हें 'अन्तरद्वीपज' कहते हैं। ये भी लौकिक और लोकोत्तर कर्म रहित होते हैं। जो इनमें उत्पन्न होते हैं, वे 'अन्तरद्वीपज' कहलाते हैं। (प्रज्ञापना १) क्योंकि कर्मभूमि के गर्भज मनुष्यों में से ही कोई सर्व-विरत साधु बनते हैं, परन्तु अकर्मभूमिजगर्भज मनुष्य या अन्तरद्वीपजगर्भज मनुष्य सर्व-विरत साधु नहीं बन सकता, इसलिए उन्हें मनः पर्यायज्ञान उत्पन्न नहीं होता। जइ कम्मभूमियगब्भवक्कंतियमणुस्साण, किं संखिज्जवासाउयकम्मभूमिय- . गब्भवक्कंतियमणुस्साणं असंखिजवासाउयकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं?. गोयमा! संखेजवासाउय-कम्मभूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं, णो असंखेजवासाउय-कम्मभूमियगब्भवक्कं तियमणुस्साणं॥ प्रश्न - यदि कर्मभूमिज कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को मन:पर्यायज्ञान उत्पन्न होता है, तो क्या संख्येय वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है या असंख्येय वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है ? उत्तर - गौतम! संख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता है, क्योंकि उन्हीं में सर्व विरत साधु हो सकते हैं, असंख्यात वर्ष की आयु वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि उनमें सर्व विरति असंभव है। विवेचन - 'संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले' - यह एक पारिभाषिक शब्द है। जो जघन्य अन्तर्मुहूर्त की आयुष्य वाले हैं, उनसे लेकर जो उत्कृष्ट एक पूर्वकोटि (७०,५६,०००,००,००,००० सत्तर लाख छप्पन सहस्र करोड़) वर्ष आयुष्य वाले होते हैं, उन्हें सूत्र में 'संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले' कहते हैं। अंसख्येय वर्ष की आयुष्य वाले - जो पूर्वकोटि वर्ष से एक समय भी अधिक आयुष्य वाले होते हैं, उन्हें 'असंख्येय वर्ष की आयुष्य वाले' कहते हैं। (भगवती २४, १) जइ संखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं किं पजत्तगसंखेजवासाउयकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, अपज्जत्तग-संखेजवासाउयकम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं? गोयमा! पजत्तग-संखेज वासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं, णो अपज्जत्तगसंखेजवासाउय-कम्मभूमिय-गब्भवक्कंतियमणुस्साणं। अर्थ - प्रश्न - यदि संख्येय वर्ष की आयुष्य वाले कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों को उत्पन्न होता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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