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________________ अवधिज्ञान का विषय ************************************************************************************ हैं, कोई ३. संख्यातवें भाग अधिक द्रव्य जानते हैं, कोई ४. संख्यात गुण अधिक द्रव्य जानते हैं, कोई ५. असंख्यात गुण अधिक द्रव्य जानते हैं और कोई ६. अनन्त गुण अधिक द्रव्य जानते हैं। जो मध्यम अवधिज्ञानी हैं, उनमें उत्कृष्ट अवधिज्ञान से जितने द्रव्य जानते हैं उस से कोई १. अनन्तभाग हीन कोई २. असंख्यभाग हीन ३. कोई संख्यभाग हीन ४. कोई संख्यगुण हीन ५. कोई असंख्यगुण हीन तथा कोई ६. अनंतगुण हीन जानता है (इस प्रकार छह प्रकार से जानना 'षट् स्थान पतित' जानना कहलाता है।) शंका - जानने में और देखने में क्या अन्तर है? समाधान - जानना-'ज्ञान' कहलाता है तथा देखना-'दर्शन' कहलाता है। प्रत्येक द्रव्य, गुण और पर्याय में, अन्य द्रव्य गुण और पर्याय से कुछ न कुछ समानता और कुछ न कुछ विशेषता अवश्य रहती है। ज्ञान में समानता और विशेषता को जाना जाता है और दर्शन में मात्र अस्तित्व को देखा जाता है, यह दोनों में अन्तर है। खित्तओ णं ओहिणाणी जहण्णेणं अंगुलस्स असंखिजइ भागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं असंखिज्जाइं अलोगे लोगप्पमाणमित्ताइं खंडाइं जाणइ पासइ। __ अर्थ - क्षेत्र से अवधिज्ञानी, जघन्य अंगुल का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट से (लोक और) अलोक में लोक प्रमाण असंख्य खण्ड जानते देखते हैं। विवेचन - जिन अवधिज्ञानियों को जघन्य अवधिज्ञान हैं, वे अपने जघन्य अवधिज्ञान से 'त्रि समय आहारक सूक्ष्म पनक के शरीर तुल्य' अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को जानते हैं और जिन अवधिज्ञानियों को उत्कृष्ट अवधिज्ञान हैं, वे अपने उत्कृष्ट अवधिज्ञान से 'अग्नि-जीव सूचि भ्रमित' क्षेत्र तुल्य, समस्त लोक और अलोक में लोकप्रमाण असंख्यखण्ड क्षेत्र को जानते हैं। ' विशेष - जो मध्यम अवधिज्ञानी हैं, उनमें जघन्य अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र जाना जाता है, उससे कोई एक आकाश प्रदेश अधिक जानते हैं, कोई दो आकाश प्रदेश अधिक जानते हैं, कोई तीन आकाश प्रदेश अधिक जानते हैं। यों एक-एक आकाश प्रदेश की निरन्तर वृद्धि से यावत् कोई मध्यम अवधिज्ञान वाले, उत्कृष्ट अवधिज्ञान से जितना क्षेत्र जाना जाता है, उससे एक आकाश प्रदेश कम तक जानते हैं। कालओ णं ओहिणाणी जहण्णेणं आवलियाए असंखिज्जइ भागं जाणइ पासइ, उक्कोसेणं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ अईयमणागयं च कालं जाणइ पासइ। अर्थ - काल से अवधिज्ञानी जघन्य से आवलिका का असंख्यातवां भाग जानते देखते हैं और उत्कृष्ट से असंख्य उत्सर्पिणियाँ और अवसर्पिणियाँ बीती हुई और बीतने वाली जानते हैं, देखते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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