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________________ ******************* हजार योजन पृथक्त्व (करोड़ योजन या करोड़ योजन पृथक्त्व, करोड़ों-करोड़ योजन या करोड़ोंकरोड़ योजन पृथक्त्व, संख्यात योजन या संख्यात योजन पृथक्त्व, असंख्यात योजन या असंख्यात योजन पृथक्त्व तथा ) उत्कृष्ट से सम्पूर्ण लोक को देखकर भी अवधिज्ञान गिर सकता है। यह प्रतिपाति अवधिज्ञान का प्ररूपण हुआ। विवेचन - 'प्रतिपात' का अर्थ है - गिरना । अतएव जो उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान कुछ काल रहकर एक ही समय में सर्वथा नष्ट हो जाय (अभाव हो जावे) उसे 'प्रतिपाति अवधिज्ञान' कहते हैं । अप्रतिपाति अवधिज्ञान दृष्टांत - जैसे तैलादि सामग्री से युक्त जलता हुआ दीपक, तैल के अभाव से, या प्रतिकूल वायु से, सहसा एक ही क्षण में सर्वथा बुझ जाता है, वैसे ही प्रशस्त अध्यवसाय और अवधिज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान तथाविध संक्लिष्ट अध्यवसाय और अवधिज्ञानावरणीय कर्म के सर्वघाति उदय से एक ही क्षण में सहसा सर्वथा नष्ट हो जाता है। तथाविध संक्लिष्ट अध्यवसाय से- हास्य, भय, विस्मय, लोभ आदि समझने चाहिए ( स्थानांग ५) यह 'प्रतिपाति अवधिज्ञान' है । अब सूत्रकार अवधिज्ञान के छठे भेद - अप्रतिपाति का स्वरूप बतलाते हैं ६. अप्रतिपाति अवधिज्ञान से किं तं अपडिवाइ ओहिणाणं ? अपडिवाइ ओहिणाणं जेणं अलोगस्स एगमवि आगासपएसं जाणइ पासइ तेण परं अपडिवाइ ओहिणाणं । से त्तं अपडिवाइ ओहिणाणं ॥ १५ ॥ प्रश्न - वह अप्रतिपाति अवधिज्ञान क्या है ? Jain Education International ६७ **** उत्तर जिससे अलोक का एक भी आकाश प्रदेश जान देख लेवे ( वहाँ पुद्गल हो तो जानने का सामर्थ्य प्राप्त हो जावे) उसके बाद वह अवधिज्ञान अप्रतिपाति बन जाता है। यह अप्रतिपाति अवधिज्ञान का प्ररूपण हुआ । विवेचन - 'अप्रतिपात' का अर्थ है - नहीं गिरना । अतएव जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् केवलज्ञान की उत्पत्ति के एक क्षण पहले तक विद्यमान रहे उसे 'अप्रतिपाति अवधिज्ञान' कहते हैं । किन्हीं अन्य स्थानों पर जो अवधिज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् मृत्यु पर्यन्त विद्यमान रहे, उसे 'अप्रतिपाति अवधिज्ञान' कहा है। अवधिज्ञानी जिस अवधिज्ञान से अलोक का एक भी आकाश प्रदेश जानता है ( वहाँ पुद्गल हो तो जानने का सामर्थ्य रखता है) वह अवधिज्ञान, नियम से केवलज्ञान की उत्पत्ति के एक समय - - For Personal & Private Use Only www.jalnelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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