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________________ २७४ - नन्दी सूत्र अर्थ - जैसे पांच अस्तिकाय (१. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. जीव और ५. पुद्गल) ये पहले कभी नहीं रहे हों-ऐसी बात नहीं हैं और कभी नहीं रहते हैं-ऐसा भी नहीं है तथा आगे कभी नहीं रहेंगे-ऐसा भी नहीं है। ये रहे हैं, रहते हैं और रहेंगे। क्योंकि ये ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, नित्य हैं। एवामेव दुवालसंगं गणिपिडगं ण कयाइ णासी, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च, भवइ य, भविस्सइ य, धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। अर्थ - इसी प्रकार यह द्वादशांगी गणिपिटक भी कभी नहीं रहा-ऐसा नहीं, कभी नहीं रहता है-ऐसा भी नहीं है और कभी नहीं रहेगा-ऐसा भी नहीं है, परन्तु यह रहा भी है, रहता भी है और आगे भी रहेगा ही। क्योंकि यह (१) ध्रुव है - जैसे मेरु पर्वत निश्चल है, वैसे द्वादशांगी गणिपिटक में जीवादि पदार्थों का निश्चल प्रतिपादन होता है। यह (२) नियत है - जैसे पाँच अस्तिकाय के लिए 'लोक' यह वचन नियत है, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक के वचन पक्के हैं, बदलते नहीं हैं। (३) शाश्वत है - जैसे महाविदेह क्षेत्र में चौथा दुःषमसुषमा काल निरंतर विद्यमान रहता है, वैसे ही वहाँ यह द्वादशांगी सदा काल विद्यमान रहती है। (४) अक्षय है - जैसे पौण्डरीक द्रह से गंगा नदी का प्रवाह निरंतर बहता है पर कभी पौण्डरीक द्रह खाली नहीं होता वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक की निरंतर वाचना आदि देने पर भी कभी इसका क्षय नहीं होता। (५) अव्यय है - जैसे मनुष्य क्षेत्र के बाहर के समुद्र सदा पूरे भरे रहते हैं, उनका कुछ भाग भी व्यय नहीं होता, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक सदा पूरा भरा रहता है, उसमें से कुछ भाग भी व्यय नहीं होता। (६) अवस्थित है - जैसे जम्बूद्वीप का प्रमाण सदा एक ही रहता है, वैसे ही द्वादशांगी का प्रमाण सदा एक ही रहता है, उसके किसी अंग में न्यूनता अथवा अधिकता नहीं होती। (७) नित्य है - जैसे आकाश त्रिकाल नित्य है, वैसे ही द्वादशांग गणिपिटक त्रिकाल नित्य है। अब सूत्रकार श्रुतज्ञान से कितने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव का ज्ञान होता है, यह बतलाने वाला तीसरा विषय द्वार कहते हैं। श्रुतज्ञान का विषय से समासओ चउबिहे पण्णत्ते, तं जहा - दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। अर्थ - श्रुतज्ञान का विषय संक्षेप से चार प्रकार का है। यथा - १. द्रव्य से, २. क्षेत्र से, ३. काल से और ४. भाव से। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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