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________________ ****************** ****** श्रुतज्ञान का उपसंहार ********************* Jain Education International २७५ तत्थ दव्वओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ । खित्तओ णं सुयणाणी उवउत् सव्वं खेत्तं जाणइ पास । कालओ णं सुयणाणी उवउत् सव्वं कालं जाणइ पासइ । भावओ णं सुयणाणी उवउत्ते सव्वे भावे जाणइ पासइ ॥ ५७ ॥ अर्थ - (१) द्रव्य से (उत्कृष्ट ) श्रुतज्ञानी ( श्रुतज्ञान में) उपयोग लगाने पर सभी (रूपीअरूपी छहों) द्रव्यों को जानते हैं, (तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों, इस प्रकार स्पष्ट) देखते हैं । (२) क्षेत्र से - (उत्कृष्ट ) श्रुतज्ञानी ( श्रुतज्ञान में) उपयोग लगाने पर सभी (लोकाकाश व अलोकाकाश रूप) क्षेत्र को जानते हैं तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों, इस प्रकार स्पष्ट देखते हैं। (३) काल से(उत्कृष्ट ) श्रुतज्ञानी ( श्रुतज्ञान में) उपयोग लगाने पर सभी (पूर्ण भूत, भविष्य, वर्तमान) काल को जानते हैं (तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों इस प्रकार स्पष्ट) देखते हैं । (४) भाव से (उत्कृष्ट ) श्रुतज्ञानी ( श्रुतज्ञान में) उपयोग लगाने पर सभी (रूपी अरूपी छहों द्रव्यों की सब ) पर्यायों को जानते हैं (तथा मानों प्रत्यक्ष देख रहे हों इस प्रकार स्पष्ट ) देखते हैं । उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी, सर्वद्रव्यं, सर्वक्षेत्र, सर्वकाल और सर्वभावों को जातिरूप सामान्य प्रकार से जानते हैं, कुछ विशेष प्रकार से भी जानते हैं, पर सर्व विशेष प्रकारों से नहीं जानते, क्योंकि केवलज्ञान की पर्याय से श्रुतज्ञान की पर्याय अनन्तगुण हीन है। ( भगवती सूत्र श. ८ उ. २) जो उत्कृष्ट श्रुतज्ञानी नहीं है, उनमें से कोई सर्व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव जानते हैं, कोई नहीं जानते । ******************* श्रुतज्ञान का उपसंहार अब सूत्रकार श्रुतज्ञान का चौथा चूलिका द्वार कहते हैं । उसमें सबसे पहले श्रुतज्ञान के चौदह भेदों को सरलता से स्मरण में रखने के लिए उनका संग्रह करने वाली संग्रहणी गाथा कहते हैं । अक्खर सण्णी सम्मं, साइयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविट्ठ, सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ९३ ॥ अर्थ - श्रुतज्ञान के १. अक्षर ( श्रुत) २. संज्ञी ( श्रुत) ३. सम्यक् ( श्रुत) ४. सादि (श्रुत) ५. सपर्यवसित (श्रुत) ६. गमिक (श्रुत) तथा ७. अंग प्रविष्ट (श्रुत) ये सात भेद हैं तथा सात ही इनके प्रतिपक्ष भेद हैं। (१. अनक्षर श्रुत २. असंज्ञीश्रुत ३. मिथ्या श्रुत ४. अनादि श्रुत ५. अपर्यवसित श्रुत ६. अगमिक श्रुत तथा ७. अनंग प्रविष्ट श्रुत) इस प्रकार ७०२ - १४ भेद हुए । अब सूत्रकार 'श्रुतज्ञान के लाभों में कौन-सा श्रुतज्ञान का लाभ वास्तविक है' यह बताते हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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