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________________ द्वादशांगी की नित्यता २७३ ************ अर्थ- इसन्दादशांग गणिपिटक महाराजाधिराज की आज्ञा की आराधना करके अतीत-भतकाल में अनन्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार को सदा के लिए पार कर गये। इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं पडुप्पण्णकाले परित्ता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवयंति। ___ अर्थ - इस द्वादशांग गणिपिटक महाराजाधिराज की आज्ञा की आराधना करके प्रत्युत्पन्नवर्तमान काल में परित्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार को सदा के लिए पार कर रहे हैं। इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं अणागए काले अणंता जीवा आणाए आराहित्ता चाउरंतं संसारकंतारं वीईवइस्संति। अर्थ - इस द्वादशांग गणिपिटक महाराजाधिराज की आज्ञा की आराधना करके अनागतभविष्य काल में अनन्त जीव, चातुरन्त संसार कान्तार को सदा के लिए पार करेंगे। इस गणिपिटक की आज्ञा की विराधना, आराधना करने वालों को नियम से तीन काल में संसार, मोक्ष रूपं फल भोगना ही पड़ा है, इसमें कोई अपवाद नहीं हैं। अतएव विराधना को छोड़ कर आराधना की जावे। __ द्वादशांग गणिपिटक का अभी कहा हुआ त्रैकालिक फल तभी सत्य हो सकता है जब कि . द्वादशांग गणिपिटक स्वयं नित्य हो। अतएव सूत्रकार अब द्वादशांगी की नित्यता बताते हैं। ... .. द्वादशांगी की नित्यता . इच्चेइयं दुवालसंगं गणिपिडगं ण कयाइ णासी, ण कयाइ ण भवइ, ण कयाइ 'ण भविस्सइ, भुविं च, भवइ य, भविस्सइ य, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। ... अर्थ - ऐसा यह द्वादशांग गणिपिटक, ऐसा नहीं कि जो पहले कभी नहीं रहा हो, ऐसा भी नहीं कि यह कभी नहीं रहता हो और ऐसा भी नहीं कि कभी नहीं रहेगा। यह पहले भी रहा है, वर्तमान में भी रहता है और आगे भी रहेगा। क्योंकि यह १. ध्रुव है २. नियत है ३. शाश्वत है ४. अक्षय है ५. अव्यय है ६. अवस्थित है ७. नित्य है। से जहाणामए पंचत्थिकाए ण कयाइ णासी, ण कयाइ णत्थि, ण कयाइ ण भविस्सइ, भुविं च भवइ य भविस्सइ य, धुवे, णियए, सासए, अक्खए, अव्वए, अवट्ठिए, णिच्चे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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