SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - ज्ञाता धर्मकथा २४७ * * * पर्याय का काल, शास्त्राभ्यास, तपाराधना, संलेखना, भक्तप्रत्याख्यान, पादपोपगमन, देवलोक प्राप्ति, उच्च मनुष्य कुल में पुनर्जन्म, पुन: बोधि-लाभ और अन्तक्रिया आदि कहा जाता है। विवेचन - ज्ञात का अर्थ है - उदाहरण और धर्मकथा का अर्थ है - अहिंसादि का प्रतिपादन करने वाली कथा। ऐसे ज्ञात और धर्मकथाएँ जिस सूत्र में हों, उसे 'ज्ञाता-कर्मकथा' कहते हैं। विषय - ज्ञाता में उदाहरणों में प्रथम श्रुतस्कन्ध में नायकों के नगर कहे जाते हैं अर्थात् नायक जिस नगर, ग्राम, पुर, पत्तन आदि में रहता था उसका तथा अन्य सम्बन्धित नगर आदि का नाम और वर्णन बताया जाता है। उद्यान - जहाँ लोग उत्सव आदि के लिए जाते हैं और जो फल, फूल, छाया आदि से युक्त होता है। चैत्य-व्यन्तर देव आदि देव का मन्दिर, वनखंड-जहाँ नाना जाति के उत्तम वृक्ष होते हैं अर्थात् नायक जिस नगर आदि में रहता था, वहाँ जो उद्यान, चैत्य, वनखण्ड हैं, उनके तथा अन्य सम्बन्धित उद्यान आदि के और स्थान आदि के नाम तथा वर्णन कहे जाते हैं। राजा, माता, पिता कहे जाते हैं अर्थात् नायक के नगर के राजा-रानी, नायक के माता-पिता तथा अन्य सम्बन्धित अधिकारियों, सम्बन्धियों और पात्रों के नाम व वर्णन कहे जाते हैं। धर्माचार्य, उनका समवसरण-पदार्पण, लोगों की वहाँ धर्मकथा सुनने के लिए परिषद् का होना और धर्मकथा कही जाती है अर्थात् नायक के जो धर्मकथा करने वाले थे उनका जिस उद्यान आदि में जैसा पदार्पण हुआ, वहाँ धर्मकथा सुनने के लिए जैसे परिषदा गयी, धर्मकथा कहने वाले आचार्यश्री आदि ने जो धर्मकथा कही. या अन्य भी जिस प्रकार से नायक का धर्माचार्य (साधु, साध्वी, श्रावक या श्राविका) से संयोग हुआ और उन्होंने नायक को सद्बोध दिया, वह बताया जाता है। .. नायक की इहलौकिक पारलौकिक ऋद्धि कही जाती है अर्थात् नायक के द्वारा पूछने पर या धर्माचार्य के शिष्य आदि किसी अन्य द्वारा पूछे जाने पर या प्रसंगवश स्वयं धर्माचार्य ने नायक को जो उसका पूर्वभव बताया या नायक को स्वतः अपना पूर्वभव का स्मरण आया, इस पूर्वभव में वह जो था, जैसा था, जो करणी की थी, उसके फलस्वरूप इस भव में जो बना, जैसा बना, जो पाया आदि बताये जाते हैं। भोग परित्याग-प्रव्रज्या-धर्म धारण कहे जाते हैं अर्थात् धर्मकथा सुनकर नायक ने संसार के कामभोगों का त्याग किया, माता-पिता से जो चर्चा की, उत्तर दिये, शक्ति अनुसार साधु-धर्म या श्रावक धर्म धारण किया, उसके अनुराग या प्रेरणा आदि से अन्य पुरुषों ने भी जो भोग का त्याग किया, धर्म धारण किया इत्यादि का वर्णन किया जाता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy