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________________ श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद - व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती) २४५ ************ AARH ************* ******************** विषय - व्याख्याप्रज्ञप्ति में कहीं १. जीवों की व्याख्या की जाती है, कहीं २. अजीवों की व्याख्या की जाती है, कहीं ३. जीव अजीव दोनों की व्याख्या की जाती है, कहीं ४. स्व-समय की व्याख्या की जाती है, कहीं ५. पर-समय की व्याख्या की जाती है, कहीं ६. स्व-समय पर-समय दोनों की व्याख्या की जाती है, कहीं ७. लोक की व्याख्या की जाती है, कहीं ८. अलोक की व्याख्या की जाती है और कहीं ९. लोक अलोक दोनों की व्याख्या की जाती है। विवाहस्स णं परित्ता वायणा, संखिज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखिज्जा सिलोगा, संखिज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखिज्जाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ। __ अर्थ - व्याख्या प्रज्ञप्ति में परित्त वाचनाएँ, संख्येय अनुयोगद्वार, संख्येय वेष्ट, संख्येय श्लोक, संख्येय नियुक्तियाँ, संख्येय संग्रहणियाँ और संख्येय प्रतिपत्तियाँ हैं। से णं अंगठ्ठयाए पंचमे अंगे, एगे सुयक्खंधे, एगें साइरेगे अज्झयणसए, दस उद्देसगसहस्साई दस समुद्देसगसहस्साइं। ___ अर्थ - व्याख्याप्रज्ञप्ति, अंगों में पाँचवाँ अंग है। इसके एक श्रुतस्कंध और एक सौ से कुछ अधिक अध्ययन - शतक हैं। उद्देशन समुद्देशन काल (उद्देशकानुसार) १०-१० हजार हैं। विवेचन - व्याख्याप्रज्ञप्ति अंगों में पाँचवाँ अंग है। इसका एक श्रुतस्कंध है। (१९ वर्ग हैं). सातिरेक - कुछ अधिक एक सौ अध्ययन हैं। (वर्तमान में ४१ शतक हैं और अन्तर शतक १३८ है) दस सहस्र उद्देशक हैं। दस सहस्र समुद्देशक हैं। (वर्तमान में १९२४. उद्देशक हैं-पहले से आठवें शतक तक के दस-दस ८x१०=८०, नौवें, दसवें के चौंतीस-चौंतीस ३४+३४६८, ग्यारहवें के १२, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें के दस-दस ३४१०=३०, पन्द्रहवें का १, सोलहवें के १४, सतरहवें के १७, अट्ठारह, उन्नीस, बीस के दस-दस ३४१०=३०, इक्कीसवें के ८०, बाईसवें के ६०, तेईसवें के ५०, चौबीसवें के २४, पच्चीसवें के १२, छब्बीसवें से तीसवें तक के ग्यारहग्यारह ५४११-५५, इकत्तीस, बत्तीसवें के अट्ठाइस अट्ठाइस २४२८-५६, तेतीस, चौंतीसवें के एक सौ चौबीस-एक सौ चौबीस २४१२४-२४८, पेंतीसवें से लगाकर उनतालीसवें तक के पाँच शतक के प्रत्येक के एक सौ बत्तीस-एक सौ बत्तीस के हिसाब से १३२४५-६६०, चालीसवें के २३१ और इकतालीसवें के १९६। इस प्रकार कुल उद्देशक १९२४ हुए। वाचना ६६ या ६७. दिन में पूरी की जाती है।) ... छत्तीसं वागरणसहस्साइं, दो लक्खा अट्ठासीइं पयसहस्साइं पयग्गेणं संखिज्जा अक्खरा, अणंता गमा, अणंता पज्जवा, परित्ता तसा, अणंता थावरा। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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