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श्रुत ज्ञान के भेद-प्रभेद आचारांग
छुपाते हुए २. यथाशक्ति ३. मन, वचन और काया लगाकर उपयोग पूर्वक पराक्रम करना - 'वीर्य आचार' है ।
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आयारे णं परित्ता वायणा, संखेज्जा अणुओगदारा, संखिज्जा वेढा, संखेज्जा सिलोगा, संखिज्जाओ णिज्जुत्तीओ, संखिज्जाओ संगहणीओ, संखिज्जाओ पडिवत्तीओ।
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अर्थ - आचारांग में वाचनाएँ परिमित हैं । संख्यात अनुयोगद्वार हैं । इसमें संख्यात वेढ़, छन्द और संख्यात श्लोक हैं। इसमें नियुक्तियाँ तथा संग्रहणियाँ संख्याता हैं । प्रतिपादन की शैलियाँ भी अनेक हैं । विवेचन आगम को सूत्र से अर्थ या उभय से, आदि से अन्त तक पढ़ना और पढ़ाना'वाचना' कहलाती है। जिन तीर्थंकरों का शासन असंख्येय काल का होता है, उनके शासन में वाचनाएँ असंख्य होती हैं और जिन तीर्थंकरों का शासन संख्येय काल का होता है, उनके शासन में वाचनाएँ संख्येय होती हैं।
सूत्र का अर्थ कहना' अनुयोग' है । १. उपक्रम २. निक्षेप ३. अनुग़म और ४. नय, अर्थ कहने के ये चार द्वार हैं - (मार्ग-प्रकार हैं)। प्रत्येक अध्ययन में ये चार 'अनुयोगद्वार' होते हैं। अध्ययन संख्येय होते हैं, अतएव अनुयोग द्वार भी संख्येय होते हैं।
संख्येय वेष्ट हैं, संख्येय श्लोक हैं । छन्द को श्लोक कहते हैं । वेष्ट एक प्रकार का छन्द विशेष है।
संख्येय निर्युक्तियाँ हैं। सूत्र में रहे हुए अर्थों का युक्तिपूर्वक कथन करना । अर्थ का शिष्य को निश्चय हो, इस प्रकार व्याख्या करके बतलाना, अनेक द्वार बनाकर अर्थ प्रकट करना - ' -'निर्युक्ति' है। ऐसी निर्युक्तियाँ शास्त्र में संख्येय ही संभव है ।
शास्त्र के अध्ययन, उद्देशक, द्वार, दृष्टान्त आदि का संग्रह करने वाली गाथा को 'संग्रहणी' कहते हैं। ऐसी संग्रहणियाँ शास्त्र में संख्येय होती हैं ।
• जिनके द्वारा पदार्थों का स्वरूप विस्तार से समझ में आता है, ऐसी मार्गणाओं को - 'प्रतिपत्ति' कहते हैं। ऐसी मार्गणाएँ भी शास्त्रों में संख्येय होती हैं ।
से णं अंगट्टयाए पढमे अंगे, दो सुयक्खंधा, पणवीसं अज्झयणा, पंचासीई उद्देसणकाला, पंचासीई समुद्देसणकाला ।
अर्थ - आचारांग अंगों में प्रथम अंग है। इसके दो श्रुतस्कंध और पच्चीस अध्ययन हैं। उद्देशन समुद्देशन काल (उद्देशकानुसार ) ८५-८५ हैं ।
विवेचन आचारांग सूत्र अंगों की दृष्टि से पहला अंग है ।
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