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________________ नन्दी सूत्र अथवा यों कहें कि बिना अवाय के धारणा नहीं होती, अतएव धारणा से अवाय पहले होता है, बिना ईहा के अवाय नहीं होता, अतएव अवाय से ईहा पहले होती है। बिना अवग्रह के ईहा नहीं हो सकती, अतएव ईहा से अवग्रह पहले होता है । इस प्रकार अवग्रहादि का यही पूर्वापर क्रम है अन्यथा नहीं । प्रश्न - जैसे सोया हुआ पुरुष शब्द सुनता है, उसमें अवग्रह आदि सभी क्रम से घटित होते हैं। क्या वैसे ही जाग्रत पुरुष शब्द सुनता है, उसमें भी अवग्रह आदि सभी क्रम से घटित होते हैं ? उत्तर - हाँ, यही बताने के लिए सूत्रकार अब 'जाग्रत पुरुष' का दृष्टांत देते हैं। अवग्रह आदि का क्रम १९६ से जहाणामए केई पुरिसे अव्वत्तं सद्दं सुणिज्जा, तेणं सद्दोत्ति उग्गहिए, चेव णं जाणइ के वेस सद्दाइ तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस संदे, ओ अवायं पविस, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं । ****** अर्थ - कल्पना करो कि किसी नाम वाला कोई (जाग्रत) पुरुष है, उसके श्रोत्र उपकरण द्रव्यइंद्रिय में शब्द पुद्गल प्रवेश करते हैं । तब वह पहले व्यंजन पूरा होने पर एक समय की स्थिति वाले नैश्चयिक अर्थ अवग्रह से अव्यक्त रूप में उस शब्द को सुनता है, फिर असंख्य समय की स्थिति वाला प्रथम व्यावहारिक अर्थ अवग्रह होने पर - 'यह शब्द है' इस प्रकार शब्द को जानता है । परन्तु उस समय वह यह जानता है कि - 'यह कौन शब्द कर रहा है।' उसके पश्चात् वह पुरुष ईहा में प्रवेश करता है कि 'मुझे कौन शब्द कर रहा है'? उसके अनन्तर वह जानता है कि- 'अमुक यह शब्द कर रहा है' - यह शब्द का अवायरूप ज्ञान है। इस ज्ञान के रूप में वह अवाय में प्रवेश करता है । उस अवाय के अनन्तर शब्द का निर्णायक ज्ञान उसे अविच्युति रूप धारणा से आत्मगत हो जाता है। उसके पश्चात् वह वासना रूप धारणा में प्रवेश करता है। उससे वह शब्द के ज्ञान संस्कार को संख्यात काल या असंख्यात काल तक आत्मा में धारण किये रहता है । विवेचन - कई बार जाग्रत दशा में अवग्रह आदि के उपर्युक्त क्रम की अनुभूति होती है, परन्तु कई बार अनुभूति नहीं भी होती । तब यह भ्रांति हो जाती है कि - 'इस बार अवग्रहादि सब हुए ही नहीं, सीधा अवाय ही हुआ या अवग्रह आदि सभी एक साथ घटित हो गये। परन्तु वस्तुतः ऐसा नहीं होता, जब अनुभूति नहीं होती, तब भी अवग्रह आदि सभी उपर्युक्त क्रम से ही घटित होते हैं । फिर भी जो अनुभूति नहीं होती, उसका कारण यह है कि जाग्रत दशा में अवग्रह आदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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