SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मति ज्ञान - अवग्रह आदि का क्रम *********************** १९७ ** * *** अव्यक्त शीघ्र पूरे हो जाते हैं और छद्मस्थं का ज्ञान उतना सूक्ष्मग्राही नहीं है।' जैसे-एक पर एक जमाये हुए सौ कमल के अत्यन्त कोमल पत्ते, तीक्ष्ण धार वाले शस्त्र से बलपूर्वक शीघ्रता से छेदने पर यह भ्रांति हो जाती है कि सब पत्र एक साथ छिद गये। परन्तु वास्तविकता यह होती है कि प्रत्येक पत्र क्रम से ही छिदता है। अतएव जब क्रम की अनुभूति नहीं हो, तब भी अवग्रह आदि सभी होते हैं और इसी क्रम से होते हैं, यह जानना चाहिए। ___ अब सूत्रकार 'चक्षुइंद्रिय विषयक अवग्रह आदि भी इसी क्रम से होते हैं'-यह बताते हैं से जहाणामए केइ पुरिसे अव्वत्तं रूवं पासिज्जा तेणं रूवत्ति उग्गहिए, णो चेव णं जाणइ के वेस रूवत्ति; तओं ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस रूवे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं, असंखेज्जं वा कालं। भावार्थ - कल्पना करो,कि-किसी नाम वाला कोई पुरुष है। उसकी आँखों के सामने कोई रूप आता है। तब वह पहले एक समय की स्थिति वाले नैश्चयिक अर्थ अवग्रह से उस रूप को देखता है फिर असंख्य समय की स्थिति वाला व्यावहारिक प्रथम अर्थ अवग्रह होने पर-'यह रूप है।' इस प्रकार रूप को जानता है। परन्तु उस समय वह यह नहीं जानता कि-'यह किसका रूप है।' उसके पश्चात् वह पुरुष ईहा में प्रवेश करता है। उनके अनन्तर वह जानता है कि 'यह अमुक रूप है'। यह रूप का अवाय रूप ज्ञान है। इस ज्ञान के रूप में वह अवाय में प्रवेश करता है। उस अवाय के अनन्तर वह रूप का निर्णय ज्ञान, उसे अविच्युति रूप धारणा से आत्मगत हो जाता है। उसके पश्चात् वह वासना रूप धारणा में प्रवेश करता है। उससे वह उस रूप के ज्ञान संस्कार को संख्यात काल या असंख्यात काल तक आत्मा में धारण किये रहता है। अब सूत्रकार 'घ्राण इन्द्रिय विषयक अवग्रह आदि भी इसी क्रम से होते हैं'-यह बताते हैं। से जहाणामए केइ पुरिसे अव्वत्तं गंधं अग्घाइज्जा तेणं गंधत्ति उग्गहिए, णो चेव णं जाणइ के वेस गंधेत्ति, तओ ईहं पविसइ, तओ जाणइ अमुगे एस गंधे, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखेज्जं वा कालं असंखेज्जं वा कालं। भावार्थ - कल्पना करो कि-किसी नाम वाला पुरुष है। उसकी घ्राण उपकरण-द्रव्य-इन्द्रिय में कोई गन्ध पुद्गल प्रवेश करते हैं। तब वह पहले व्यंजन अवग्रह पूरा होने पर एक समय की स्थिति : वाले नैश्चयिक अर्थ अवग्रह से, अव्यक्त रूप से उस गन्ध को सूंघता है। फिर असंख्य समय की Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy