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मति ज्ञान - ईहा आदि का स्वरूप
को एक समय का अर्थ अवग्रह होता है, जिसमें वह शब्द को अत्यंत अव्यक्त रूप में जानता है । उससे अगले असंख्य समय में उसे व्यावहारिक अर्थ अवग्रह होता है, उससे वह 'कोई शब्द करता है' - इस अव्यक्त रूप में शब्द को जानकर 'हुँ' कार करता है । परन्तु वह स्पष्ट व्यक्त रूप में नहीं जानता कि 'यह कौन शब्द कर रहा है ?'
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'शकोरे' के समान 'श्रोत्रइंद्रिय' है और 'जल' के समान 'शब्द' है । जैसे शकोरा एक जलबिंदु से भर नहीं पाता, उसके भरने में सैकड़ों जल-बिंदु चाहिए, वैसे ही श्रोत्रइंद्रिय शकोरे के समान होने से उसका व्यंजन अवग्रह एक समय प्रविष्ट शब्द पुद्गलों से पूरा नहीं हो जाता। उसे पूरा होने में असंख्य समय चाहिए ।
जैसे शकोरे का बहना है, वैसे श्रोत्रइंद्रिय का अर्थ अवग्रह है। जिस प्रकार शकोरा भर जाने के पश्चात् उसके बहने में मात्र एक बिन्दु चाहिए, उसी प्रकार श्रोत्र इंद्रिय का व्यंजन अवग्रह पूरा होने के पश्चात् श्रोत्रइंद्रिय का अर्थ अवग्रह होने में एक समय लगता है ।
अब सूत्रकार अवग्रह के पश्चात् क्रम से ईहा, अवाय और धारणा का स्वरूप बतलाते हैं ।
ईहा आदि का स्वरूप
तओ ईहं पविसई, तओ जाणइ अमुगे एस सद्दाइ, तओ अवायं पविसइ, तओ से उवगयं हवइ, तओ धारणं पविसइ, तओ णं धारेइ संखिज्जं वा कालं, असंखिज्जं 'वा कालं ।
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अर्थ - उस व्यावहारिक अर्थ अवग्रह के अनन्तर वह पुरुष ईहा में प्रवेश करता है कि 'मुझे कौन शब्द कर रहा है' ? उसके अनन्तर वह जानता है कि- 'मुझे अमुक शब्द कर रहा है।' यह शब्द का अवाय रूप ज्ञान है। इस ज्ञान के रूप में वह अवाय में प्रवेश करता है । उस अवाय के अनन्तर शब्द का निर्णय ज्ञान उसे अविच्युति रूप धारणा से आत्मगत हो जाता है। उसके पश्चात् वह वासना रूप धारणा में प्रवेश करता है, उससे वह पुरुष, उस शब्द के ज्ञान संस्कार को संख्यात काल या असंख्यात काल तक आत्मा में धारण किये रहता है।
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विवेचन - किसी विषय का ग्रहण होने पर ही उसकी ईहा ( विचारणा ) संभव है। अतएव ईहा, अवग्रह के अनन्तर ही होती है। किसी विषय की ईहा के पश्चात् ही उसका अवाय (निर्णय) किया जा सकता है। अतएव अवाय, ईहा के अनन्तर ही होता है। किसी विषय के अवाय के पश्चात् ही उसकी भविष्य के लिए धारणा हो सकती है, अतएव धारणा अंवाय के अनन्तर ही होती है ।
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