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________________ मति ज्ञान - स्थूलभद्र का त्याग १६५ थी। इसी प्रकार यक्षदत्ता को दो बार, भूता को तीन बार, भूतदत्ता को चार बार, सेना को पाँच बार, वेणु को छह बार और रेणु को सात बार सुनने से याद हो जाती थी। ____ पाटलिपुत्र में वररुचि नाम का एक ब्राह्मण रहता था। वह बहुत विद्वान् था। प्रतिदिन वह १०८ नये श्लोक बना कर राजसभा में लाता और राजा नंद की स्तुति करता। श्लोकों को सुन कर राजा, मंत्री की तरफ देखता, किन्तु मंत्री इस विषय में कुछ न कहकर चुपचाप बैठा रहता। मंत्री को मौन बैठा देख कर राजा, वररुचि को कुछ भी पुरस्कार नहीं देता। इस प्रकार वररुचि को सदैव खाली हाथ लौटना पड़ता। वररुचि की स्त्री उससे कहती कि "तुम कमा कर कुछ भी नहीं लाते, घर का खर्च किस प्रकार चलेगा?" इस प्रकार स्त्री के भी बार-बार कहने से वररुचि विशेष चिंतित हुआ। उसने सोचा-"जब तक सकडाल मंत्री, राजा से कुछ न कहेगा, तब तक राजा मुझे इनाम नहीं देगा।" यह सोचकर वह सकडाल के घर गया और सकडाल की स्त्री की बहुत प्रशंसा करने लगा। स्त्री ने पूछा-'पण्डितराज! आज आपके आने का क्या प्रयोजन है?" वररुचि ने उसके आगे अपनी सारी बात कही। उसने कहा-"ठीक है, आज इस विषय में मैं उनसे कहूँगी।" वररुचि वहाँ से चला गया। शाम को सकडाल की स्त्री ने उससे कहा - "स्वामिन्! वररुचि हमेशा एक सौ आठ श्लोक नये बना कर लाता है और राजा की स्तुति करता है। क्या वे श्लोक आपको पसन्द नहीं हैं?" सकडाल - "उसके श्लोक मुझे पसन्द है।" . स्त्री - "तो फिर आप उसकी प्रशंसा क्यों नहीं करते?" । सकडाल - "वह मिथ्यात्वी है। इसलिए मैं उसकी प्रशंसा नहीं करता।" स्त्री - "स्वामिन्! आपका कहना ठीक है, परन्तु सम्यक्त्व के आचारों के साथ अनुकम्पा की भी आराधना की जानी चाहिए न? कम से कम एक दिन तो १०८ मोहरें दिलवा दीजिये?" सकडाल - "अच्छा कल देखा जायेगा।" दूसरे दिन राजसभा में आकर सदैव की तरह वररुचि ने एक सौ आठ श्लोकों द्वारा राजा की स्तुति की। राजा ने मंत्री की ओर देखा। मंत्री ने कहा - "सुभाषित है।" राजा ने वररुचि को एक सौ आठ मोहरें इनाम में दी। वररुचि हर्षित होता हुआ अपने घर चला आया। उसके चले जाने पर सकड़ाल की पत्नी का वचन पूरा हो गया, वह सोचकर राजा से कहा - ___ "आपने वररुचि को मोहरें क्यों दी?" . राजा - "वह नित्य एक सौ आठ श्लोक नये बनाकर लाता है और आज तुमने उसकी प्रशंसा भी की, इसलिए मैंने उसे पुरस्कार दिया।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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