________________
नन्दी सूत्र
१५२ *************
**********
"दौड़ो, दौड़ो! अभयकुमार मुझे जूतों से मारते हुए ले जा रहा है, मुझे छुड़ाओ, मुझे छुड़ाओ।" लोगों ने सदा की भांति आज भी इसे अभयकुमार की बालक्रीड़ा ही समझा। इसलिए कोई भी मनुष्य उसे छुड़ाने के लिए नहीं आया। अभयकुमार, राजा चण्डप्रद्योत को राजगृह ले आया। चण्डप्रद्योत अपने मन में बहुत लज्जित हुआ। राजा श्रेणिक के पैरों में पड़ कर उसने अपने अपराध की क्षमा माँगी। राजा श्रेणिक ने उसे छोड़ दिया। वह उज्जयिनी में आकर राज्य करने लगा। राजा चण्डप्रद्योत को पकड़कर इस तरह ले आना अभयकुमार की पारिणामिकी बुद्धि थी।
२. दोष निवारण
(सेठ) एक नगर में 'काल' नाम का एक सेठ रहता था। अपनी स्त्री के दुश्चरित्र को देखकर उसे वैराग्य उत्पन्न हो गया। गुरु के पास जाकर उसने दीक्षा अंगीकार कर ली। मुनि बनकर वह शुद्ध संयम का पालन करने लगा। .. उधर पर-पुरुष के समागम से उस स्त्री के गर्भ रह गया। जब राजपुरुषों को इस बात का पता लगा, तो वे उस स्त्री को पकड़ कर राजदरबार में ले जाने लगे। संयोगवश विहार करते हुए वे ही मुनि उधर से निकले। मुनि को लक्ष्य कर वह स्त्री कहने लगी-“हे मुने! यह तुम्हारा गर्भ है। तम इसे छोड़कर कहाँ जा रहे हो? इसका क्या होगा?" . स्त्री के वचन सुनकर विचलित असहिष्णु मुनि ने विचार किया-"मैं तो निष्कलंक हूँ। इसलिए मेरे चित्त में तो किसी प्रकार का खेद नहीं है, किन्तु इसके द्वारा किये दोषारोपण से जैन शासन की और श्रेष्ठ साधुओं की कीर्ति पर धब्बा लगेगा।" ऐसा सोचकर मुनि ने शाप दिया कि-"यदि यह गर्भ मेरा हो, तो इसका सुखपूर्वक प्रसव हो। यदि यह गर्भ मेरा न हो तो गर्भ समय पूर्ण हो जाने पर भी इसका प्रसव न हो और इसका पेट चीरकर इसे निकालने की परिस्थिति बने।"
जब गर्भ के मास पूरे हो गये, तब भी बालक का जन्म नहीं हुआ। इससे माता को बहुत कष्ट होने लगा। संयोगवश विहार करते हुए वे ही मुनि, उन दिनों वहाँ पधार गये। राजपुरुषों के सामने उस स्त्री ने मुनिराज से प्रार्थना की-"महाराज! यह गर्भ आपका नहीं है। मैंने आपके सिर पर झूठा कलंक लगाया था। मेरे अपराध के लिये मैं आपसे बार-बार क्षमा मांगती हूँ। अब आगे फिर कभी ऐसा अपराध नहीं करूँगी।"
इस प्रकार अपने अपराध की क्षमा माँगने से तथा मुनि पर से कलंक उतर जाने के कारण गर्भ का सुखपूर्वक प्रसव हो गया।
इस प्रकार धर्म का मान और उस स्त्री के प्राण दोनों बच गए। यह मुनि की 'पारिणामिकी बुद्धि' थी।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org