SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 118
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मति ज्ञान के भेद ************************************************************************************ से अधिक यथार्थ हुई है ४. आदि से अन्त तक विरोध रहित एक समान युक्त हैं, ६. समसंवेगादि में प्रवृत्त करती है, ७. अहिंसादि चारित्र को विच्छेद में निमित्त बनती है और ९. कर्म क्षय कर मोक्ष प्राप्ति में कारणभूत बनती है। मिथ्यादृष्टि की मति, मतिअज्ञान ही होगी, क्योंकि १. वह मिथ्यादृष्टित्व के स्पर्श से मलिन है २. कुशास्त्र के अभ्यास से तुच्छ है, ३. स्वरूप से प्रायः अयथार्थ है, ४. पूर्वापर विरोध युक्त है, ५. एकांतवाद अथवा दूषित अनेकांत वाद युक्त है, ६. संसार रुचि उत्पन्न करती है, ७. हिंसादि में प्रवृत्त करती है, ८. भव वृद्धि का कारण बनती है और ९. संसार परिभ्रमण में निमित्तभूत होती है। उपलक्षण से - अवधि अवधि में भी अन्तर समझना चाहिए, वह इस प्रकार है अविशेषित अवधि, अवधिज्ञान भी हो सकता है और अवधि अज्ञान (विभंग ज्ञान) भी । पर विशेषित अवधि - सम्यग्दृष्टि की अवधि, अवधिज्ञान ही होगी और मिथ्यादृष्टि की अवधि, अवधिज्ञान (विभंगज्ञान) ही होगी। १०१ पाँच ज्ञानों में मति, श्रुत और अवधि - ये तीनों ही ज्ञान और अज्ञान-यों दोनों रूप में हो सकते हैं, क्योंकि ये तीनों, सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों में पाये जाते हैं। पर मनः पर्यवज्ञान और केवलज्ञान, ये दोनों ज्ञान रूप ही होते हैं, क्योंकि ये दोनों सम्यग्दृष्टि में ही पाये जाते हैं, मिथ्यादृष्टि में नहीं। अब जिज्ञासु मति ज्ञान के स्वरूप को जानने के लिए पूछता है । मतिज्ञान के भेद - । ५. सम्यक् अनेकान्तवाद उत्पन्न करती है, ८. भव से किं तं आभिणिबोहियणाणं ? आभिणिबोहियणाणं दुविहं पण्णत्तं, तं जहासुयणिस्सियं च, अस्सुयणिस्सियं च । प्रश्न - वह आभिनिबोधिक ज्ञान क्या है ? उत्तर आभिनिबोधिक ज्ञान के दो भेद हैं। वे इस प्रकार हैं २. अश्रुत निश्रित । विवेचन द्रव्य इन्द्रिय और द्रव्य मन के योग से, नियत रूप से, रूपी अरूपी पदार्थ को जानना - आभिनिबोधिक ज्ञान है । मतिश्रुत का अन्तर बताते समय ऊपर बताया गया है कि 'मतिज्ञान के स्वामी चारों गति के सम्यग्दृष्टि जीव हैं, ' अतएव अब सूत्रकार, शिष्य की जिज्ञासा पूर्ति के लिए मतिज्ञान के कितने भेद हैं तथा मतिज्ञान कितने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जानता है, ये दो बातें बतायेंगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only - १. श्रुत निश्रित और www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy