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________________ १०० ******** - नन्दी सूत्र ** ***************** *** * *****40*40404024 * 440202 2 * मतिज्ञान, श्रुतज्ञान की तीव्रता मन्दता का कारण है, पर श्रुतज्ञान, मतिज्ञान की तीव्रता मन्दता का एकान्त कारण नहीं है, क्योंकि कइयों में श्रुतज्ञान तीव्र न होते हुए भी मतिज्ञान तीव्र पाया जाता है। ३. अथवा यदि किसी को श्रुतज्ञान का विकास करना है, तो उसमें मतिज्ञान का विकास होना आवश्यक है। अनुप्रेक्षा, चिन्तन, तर्कणा शक्ति का विकसित होना आवश्यक है। यदि उसमें मतिज्ञान विकसित न हुआ, तो उसका श्रुतज्ञान विकसित नहीं होगा। इस प्रकार श्रुतज्ञान के विकास में मतिज्ञान का विकास सहायक है। अतएव मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के विकास का कारण है, पर श्रुतज्ञान मतिज्ञान के विकास का एकान्त कारण नहीं, क्योंकि कइयों में श्रुतज्ञान विकसित न होते हुए भी मतिज्ञान में विकास पाया जाता है। .. ४. अथवा-यदि किसी को प्राप्त श्रुतज्ञान टिकाना है, तो उसमें स्मृतिरूप मतिज्ञान होना. आवश्यक है। यदि उसमें स्मृति रूप मतिज्ञान नहीं हुआ, तो श्रुतज्ञान टिक नहीं सकता। ___इस प्रकार श्रुतज्ञान के टिकाव में मतिज्ञान सहायक है। अतएव मतिज्ञान, श्रुतज्ञान के टिकाव का कारण है, पर श्रुतज्ञान, मतिज्ञान के टिकाव का कारण नहीं है, क्योंकि मतिज्ञान स्वत: टिकता है, श्रुतज्ञान के कारण नहीं। ___यों श्रुतज्ञान के १. ग्रहण में २. प्रगति में ३. विकास में और ४. टिकाव में मतिज्ञान पूर्व सहायक है। अतएव श्रुतज्ञान, मतिपूर्वक है। पर मतिज्ञान के ग्रहण में और टिकाव में श्रुतज्ञान किंचित् भी सहायक नहीं है और प्रगति और विकास में भी एकान्त सहायक नहीं है। अतएव मतिज्ञान, श्रुतपूर्वक नहीं है। इस कारण मति और श्रुत, ये दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न हैं, एक नहीं। अब सूत्रकार मति-मति में भी अन्तर बताते हैं - अविसेसिया मई, मइणाणं च मइअण्णाणं च। विसेसिया सम्मदिट्ठिस्स मई मइणाणं, मिच्छदिट्ठिस्स मई मइअण्णाणं। अविसेसियं सुयं सुयणाणं च सुयअण्णाणं च। विसेसियं सुयं सम्मदिट्ठिस्स सुयं सुयणाणं, मिच्छदिट्ठिस्स सुयं सुयअण्णाणं॥२५॥ ___ अर्थ - अविशेषित मति, मतिज्ञान भी हो सकती है और मति अज्ञान भी हो सकती है, परन्तु विशेपित होने पर सम्यग्दृष्टि की मति ‘मतिज्ञान' ही होगी और मिथ्यादृष्टि की मति, 'मतिअज्ञान' ही होगी। विशेषित न होने पर श्रुत, श्रुतज्ञान भी हो सकता है और श्रुतअज्ञान भी हो सकता है, परन्तु विशेषित होने पर सम्यग्दृष्टि का श्रुत, 'श्रुतज्ञान' ही होगा और मिथ्यादृष्टि का श्रुत, 'श्रुतअज्ञान' ही होगा। विवेचन - विशेषित मति जैसे-सम्यग्दृष्टि की मति, मतिज्ञान ही होगी, क्योंकि १. वह सम्यग्दृष्टित्व के स्पर्श से पवित्र हुई है, २. जिनागम के अभ्यास से असाधारण हुई है, ३. स्वरूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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