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नन्दी सूत्र
अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान का वर्णन और भेद अल्प होने से सूत्रकार पहले उसका वर्णन करते हैं। से किं तं अस्सुयणिस्सियं? अस्सुयणिस्सियं चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा - उप्पत्तिया १ वेणइया २, कम्मया ३, परिणामिया ४। ।
बुद्धी चउव्विहा वुत्ता, पंचमा णोवलब्भइ॥६८॥ . . अर्थ - प्रश्न - वह अश्रुत निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान क्या है ?
उत्तर - अश्रुतनिश्रित के चार भेद हैं। यथा - १. औत्पातिकी २. वैनेयिकी ३. कार्मिकी तथा ४. पारिणामिकी। अश्रुतनिश्रित के ये चार ही भेद हैं, क्योंकि पांचवां भेद नहीं मिलता। .
विवेचन - १. जिस मतिज्ञान का श्रुतज्ञान से सम्बन्ध नहीं हो, २. जिसं मंतिज्ञान में, सीखा. हुआ श्रुतज्ञान काम नहीं आता हो ३. जिस मतिज्ञान पर पहले सीखे हुए श्रुत ज्ञान का प्रभाव नहीं हो, उस मतिज्ञान को 'अश्रुत-निश्रित आभिनिबोधिक ज्ञान' कहते हैं। इसका दूसरा नाम 'बुद्धि' है।
भेद - अश्रुत-निश्रित मतिज्ञान के चार भेद हैं। वे इस प्रकार हैं -
१. औत्पातिकी - जिसमें १. गुरु-विनय २. काम का अनुभव ३. लम्बे काल का पूर्वापर विचार-ये तीनों कारण नहीं हों और जो केवल क्षयोपशम मात्र से उत्पन्न हो, उसे 'औत्पातिकी बुद्धि' कहते हैं।
२. वैनेयिकी - वंदनीय पुरुषों के प्रति विनय, वैयावृत्य, आराधना आदि से जो बुद्धि उत्पन्न होती है या बुद्धि में विशेषता आती है, उसे 'वैनेयिकी बुद्धि' कहते हैं।
३. कार्मिकी - सुनार आदि के काम करते रहने से उस विषयक जो बुद्धि उत्पन्न होती है या बद्धि में विशेषता आती है, वह 'कार्मिकी बुद्धि' है।
४. पारिणामिकी - लम्बे काल तक पहले पीछे के पर्यालोचन से आत्मा में परिणमन होकर जो बुद्धि विशेष उत्पन्न होती है, वह 'पारिणामिकी बुद्धि' है।
बुद्धि के ये चार भेद इसलिए हैं कि इन चारों में समाविष्ट न हो सके, ऐसी पांचवीं बुद्धि, केवलज्ञान में भी उपलब्ध नहीं होती।
अब सूत्रकार स्वयं औत्पत्तिकी बुद्धि के लक्षण प्रस्तुत करते हैं। पुव्वमदिट्ठमस्सुय-मवेइय, तक्खणविसुद्धगहियत्था। अव्वाहयफलजोगा, बुद्धी उप्पत्तिया णाम॥ ६९॥
अर्थ - जो विषय, पहले कभी देखने में नहीं आया, सुनने और सोचने में भी नहीं आया, ऐसा विषय उपस्थित होने पर, जो बुद्धि तत्काल सही हल खोज निकाले, वह 'औत्पत्तिकी' बुद्धि है।
विवेचन - जो बुद्धि अन्य किसी भी कारण से बिना तथाविध पटु क्षयोपशम से स्वतः उत्पन्न
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