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________________ केवलज्ञान का विषय ९३ ********************************************************************************* अर्थ - प्रश्न - वह परम्पर सिद्ध केवलज्ञान क्या है? उत्तर - परम्पर सिद्ध केवलज्ञान के अनेक भेद हैं। वे इस प्रकार हैं - जितने भी अप्रथम समय सिद्ध हैं (जिन्हें सिद्ध हुए प्रथम समय बीत चुका है) जैसे - १. द्वि समय सिद्ध (जिन्हें सिद्धत्व का दूसरा समय है) २. त्रि समय सिद्ध (जिन्हें सिद्धत्व का तीसरा समय है) ३. चतुः समय सिद्ध यावत् ९. दश समय सिद्ध १०. संख्येय समय सिद्ध ११. असंख्येय समय सिद्ध १२. अनन्त समय सिद्ध। उन सभी सिद्धों का केवलज्ञान, परम्पर सिद्ध केवलज्ञान है। यह परम्पर सिद्ध केवलज्ञान है। यह सिद्ध केवलज्ञान है। विवेचन - केवलज्ञान किसे उत्पन्न होता है और कब तक रहता है ? इस विषय में दार्शनिकों बहत मतभेद रहा है। कोई अनादिसिद्ध - एक ईश्वर में ही अनादि से केवलज्ञान होना मानते हैं, किन्तु सामान्य जीव में केवलज्ञान होना नहीं मानते। २. जो मानते हैं, उनमें कोई संसार अवस्था में केवलज्ञान उत्पन्न होना मानते हैं, पर फिर सिद्ध अवस्था में नष्ट हो जाता है - ऐसा मानते हैं। ३. कोई संसार अवस्था में केवलज्ञान होना नहीं मानते, सिद्ध अवस्था के साथ ही केवलज्ञान की उत्पत्ति मानते हैं। ४. कोई सयोगी अवस्था में केवलज्ञान होना नहीं मानते, अयोगी अवस्था में होना मानते हैं, इत्यादि कई मत रहे हैं। उन सब का निराकरण करने के लिए भगवान् ने जो यथार्थ मत था, उसे विस्तार से प्रकट किया है। इति पहला स्वामी द्वार समाप्त। विषय द्वार - 'केवलज्ञान भेद रहित है। अतएव केवलज्ञान विषयक दूसरा भेद द्वार नहीं बनता' - यह पहले बता चुके हैं। ऊपर जो केवलज्ञान के भेद किये हैं, वे वस्तुतः केवलज्ञान के नहीं, स्वामी के भेद हैं। अब सूत्रकार केवलज्ञान कितने 'द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव जानता है', यह बताने वाला तीसरा विषय द्वारा आरम्भ करते हैं। केवलज्ञान का विषय तं समासओ चउव्विहं पण्णत्तं, तं जहा - दव्वओ, खित्तओ, कालओ, भावओ। अर्थ - केवलज्ञान का विषय, संक्षेप में चार प्रकार का है। यथा - १. द्रव्य से २. क्षेत्र से ३. काल से और ४. भाव से। तत्थ दव्वओ णं केवलणाणी सव्वदव्वाइं जाणइ पासइ। अर्थ - द्रव्य केवलज्ञानी, सभी द्रव्यों को जानते देखते हैं। विवेचन - केवलज्ञानी १. धर्म २. अधर्म ३. आकाश ४. जीव ५. पुद्गल और ६. काल, इन छहों द्रव्यों में, जो द्रव्य, द्रव्य से जितने परिमाण हैं और उनके प्रत्येक के जितने प्रदेश हैं उन सभी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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