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________________ ९२ नन्दी सूत्र ******************* ********************* * * *********** * ******************* ** इन पन्द्रह भेदों से सिद्ध जीवों का केवलज्ञान ही अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान के पन्द्रह भेद हैं। यह अनन्तर सिद्ध केवलज्ञान है। अधिकांश जीव, केवलज्ञान और सिद्धत्व, तीर्थ के सद्भाव में ही प्राप्त करते हैं, क्योंकि तीर्थ । साधक कारण है। परन्तु कुछ वैसी योग्य आत्माएं, तीर्थ के अभाव में भी केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त कर लेती है। परोपकार करना, केवलज्ञान और सिद्धत्व में सहायक कारण है, पर उत्कृष्ट उपकारी तीर्थंकर बनकर सिद्ध होने वाली आत्माएं बहुत कम निकलती हैं। अधिकांश आत्माएँ सामान्य परोपकार करके या बिना परोपकार किये ही केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त कर लेती हैं। गुरु, केवलज्ञान और सिद्धत्व में सहायक कारण हैं। अतएव अधिकांश आत्माएं उन्हीं से बोधित होकर केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त करती हैं। परन्तु कुछ वैसी योग्य आत्माएं स्वयं या बोध रहित सचित्त अचित्त के कारण मात्र से बोध प्राप्त करके भी केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त कर लेती हैं। पुरुष देह, शक्ति, स्थिरता, वेदोदय की अल्पता आदि की अपेक्षा धर्म पालन में विशेष सहायक है। अतएव अधिकांश आत्माएं पुरुष देह में ही केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त करती हैं, परन्तु कई वैसी योग्य आत्माएं, स्त्री देह और जन्मजात नपुंसक देह में भी केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती हैं। स्वलिंग - रजोहरण मुखवस्त्रिका आदि धर्म पालन में सहायक कारण हैं, अतएव अधिकांश आत्माएं स्वलिंग में ही केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त करती हैं, पर कुछ वैसी योग्य आत्माएं अन्यलिंग और गृहस्थ-लिंग में भी केवलज्ञान और सिद्धत्व को प्राप्त कर लेती है। पर ऐसी आत्माएं स्वलिंग-सिद्ध की अपेक्षा असंख्येय भाग मात्र होती हैं। धर्म में परस्पर सहयोग, धर्मपालन के लिए श्रेष्ठ कारण है, अतएव प्रायः आत्माएं पारस्परिक सहयोग से ही केवलज्ञान और सिद्धत्व के निकट पहुँचती हैं, पर जिस समय केवलज्ञान और सिद्धत्व की प्राप्ति होती है, उस समय भी १०८ आदि साथी हों, ऐसा बहुत कम होता है। उस समय अधिकांश जीव अकेले-दुकेले ही केवलज्ञान और सिद्धत्व प्राप्त करते हैं। से किं तं परंपरसिद्धकेवलणाणं? परंपरसिद्धकेवलणाणं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा - अपढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा, तिसमयसिद्धा, चउसमयसिद्धा जाव दससमयसिद्धा, संखिजसमयसिद्धा, असंखिजसमयसिद्धा, अणंतसमयसिद्धा, से त्तं परंपरसिद्धकेवलणाणं, से त्तं सिद्धकेवलणाणं ॥ २२॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004198
Book TitleNandi Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages314
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_nandisutra
File Size7 MB
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