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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र Socex
चाउज्जामो य जो धम्मो, जो इमो पंचसिक्खिओ । देसिओ वद्धमाणेण, पासेण य महामुणी ! ॥ एगकज्जपवण्णाणं विसेस किं नु कारणं? धम्मे दुविहे मेहावी, कहं विप्पच्चओ न ते ?
भगवान् पार्श्वनाथ ने चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा की तथा भगवान् महावीर स्वामी द्वारा पंचमहाव्रतमूलक धर्म प्रतिपादित हुआ । एक ही लक्ष्य की ओर प्रवृत्त इन दोनों महापुरुषों की . प्ररूपणा में यह विशेषता, अंतर क्यों है ? धर्म की इस प्रकार की गई दो प्रकार की प्ररूपणा से क्या विप्रत्यय - संदेह नहीं होता ?
कुमारकेशी श्रमण द्वारा यों जिज्ञासित किए जाने पर गौतमस्वामी ने कहा - तओ केसिंबुवंतं तु, गोयमो इणमब्बवी । पण्णा समिक्ख धम्मं, तत्तं तत्तविणिच्छियं ॥ पुरिमा उज्जुजडा उ, वंकजडा य पच्छिमा । मज्झिमा उज्जुपण्णा उ, तेण धम्मे दुहा कए । पुरिमाणं दुव्विसुज्झो उ, चरिमाणं दुरणुपालओ ।
कप्पो मज्झिमगाणं तु, सुविसुज्झो सुपालओ ॥
विशिष्ट ज्ञानियों की प्रज्ञा द्वारा धर्म की समीक्षा की जाती है तथा तत्त्व का निश्चय किया जाता है।
प्रथम तीर्थंकर के समय लोग ऋजुजड़ होते हैं तथा अंतिम तीर्थंकर के समय के लोग वक्रजड़ होते हैं। दोनों के बीच के दूसरे से तेवीसवें तीर्थंकर के समय के लोग ऋजुप्राज्ञ होते हैं। इसी आधार पर धर्म का यह द्विविध प्रतिपादन हुआ है।
पहले तीर्थंकर के समय के लोगों को ऋजुता - जड़ता के कारण धर्म को भलीभांति समझना कठिन होता है। अतएव उन्हें समझाने हेतु पांचों महाव्रतों का पृथक्-पृथक् उपदेश दिया जाता है। अंतिम तीर्थंकर के समय के लोग अनुपालन में कठिनाई अनुभव करते हैं, अतः बचने का कोई रास्ता निकाल लें, ऐसा आशंकित होता है। अतः वहाँ पृथक्-पृथक् रूप में महाव्रतों का
उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३ गाथा २३-२४ । उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २३ गाथा २५-२७।
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