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उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - प्रयोगजनित पुद्गल परिणमन
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आख्यान हुआ है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के लोग सरलता पूर्वक धर्म को यथावत् समझने एवं पालन करने में तत्पर रहते हैं। अतएव ब्रह्मचर्य एवं परिग्रह को एक कर चार यामों का विवेचन हुआ। क्योंकि यथार्थ बुद्धि से समझने पर उन चार यामों में पांचों महाव्रत स्वयं ही आ जाते हैं। केवल चार-पांच की संख्या के अतिरिक्त तत्त्व में कोई भेद नहीं होता।
इस सूत्र में मंत्री सुबुद्धि द्वारा राजा जितशत्रु को चातुर्याम धर्म कहे जाने का जो उल्लेख हुआ है, इससे यह प्रकट होता है कि सुबुद्धि अमात्य चातुर्याम धर्म वाली (बीच के बावीस तीर्थंकरों की या महाविदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों में से किसी एक तीर्थंकर की) परम्परा का अनुयायी रहा होगा, ऐसा सूत्र पाठ से प्रतीत होता है। अतएव उसने पांच महाव्रत न कह कर चार यामों का विवेचन किया।
(२३) तए णं जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट्ट० सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-सद्दहामि णं देवाणुप्पिया! णिग्गंथं पावयणं ३ जाव से जहेयं तुब्भे वयह। तं इच्छामि णं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावइयं जाव उवसंपत्तिाणं विहरित्तए। अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह। ...
भावार्थ - राजा जितशत्रु सुबुद्धि से धर्म सुनकर हर्षित एवं परितुष्ट हुआ। उसने सुबुद्धि से कहा-देवानुप्रिय! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन में श्रद्धा करता हूँ यावत् जैसा तुम कहते हो, वैसा ही है।
इसलिए मैं तुमसे पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत यावत् द्वादशविध श्रावक धर्म को स्वीकार करना चाहता हूँ। ___ सुबुद्धि ने कहा - देवानुप्रिय! जिससे आपकी आत्मा को सुख हो, वैसा ही करें किन्तु इसमें व्यवधान, विलंब न करें।
तए णं से जियसत्तू सुबुद्धिस्स अंतिए पंचाणुव्वइयं जाव दुवालसविहं सावयधम्म पडिवजइ। तए णं जियसत्तू समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव पडिलाभेमाणे विहरइ। .. भावार्थ - तब राजा जितशत्रु ने अमात्य सुबुद्धि से पांच अणुव्रत यावत् द्वादशविध श्रावक धर्म स्वीकार किया। राजा जितशत्रु श्रमणोपासक हो गया यावत् उसने जीव-अजीव तत्त्वों का
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