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________________ प्रयोगजनित पुद्गल परिणमन 000000 सुबुद्धि प्रधान ने राजा जितशत्रु के समक्ष यही तत्त्व रक्खा । इस तत्त्व का प्रतिपादन जिनागम में ही किया गया है, अन्यत्र नहीं । जितशत्रु के पूछने पर सुबुद्धि ने यह बात भी स्पष्ट कर दी है। उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन ****************¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ Jain Education International - (२२) तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं एवं वयासी-तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया! तव अंतिए जिणवयणं णिसामित्तए । तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स विचित्तं केवलिपण्णत्तं चाउज्जामं धम्मं परिकहेइ तमाड़क्खड़ जहा जीवा बज्झंति जाव पंचाणुव्वयाई । शब्दार्थ - विचित्तं अद्भुत, पहले न सुना गया, णिसामित्तए - सुनने के लिए । भावार्थ तब राजा जितशत्रु ने सुबुद्धी से कहा- देवानुप्रिय ! मैं तुमसे जिनवचन - जिनेन्द्र प्ररूपित धर्म सुनना चाहता हूँ । सुबुद्धि ने जितशत्रु राजा को अद्भुत पहले न सुना हुआ (अपूर्वश्रुत) चातुर्याम धर्म कहा । जीव किस प्रकार कर्म बद्ध होते हैं? किस प्रकार मुक्त होते हैं, छूटते हैं, यह व्याख्यात किया • यावत् पांच अणुव्रतों का प्रतिपादन किया । विवेचन - जैन परम्परा में श्रुत चारित्र रूप धर्म का पांच महाव्रत तथा चातुर्याम धर्म दो प्रकार से प्रतिपादन किया गया है । यथार्थतः दोनों एक ही हैं किन्तु समझने वाले लोगों की योग्यता तथा मनोवृत्ति आदि की दृष्टि से उनके प्रतिपादन विवेचन में अंतर हुआ है। उत्तराध्ययन सूत्र के वीसवें अध्ययन में यह विषय भगवान् महावीर स्वामी के प्रमुख शिष्य गणधर गौतम और पार्श्व परम्परा के मुनि केशी श्रमण के बीच चर्चित हुआ। ऐसा प्रतीत होता है, भगवान् महावीर स्वामी के समय पार्श्व परंपरा के मुनि भी विद्यमान थे, जो पाश्र्वापत्य कहलाते थे। एक समय ऐसा प्रसंग बना कि श्रावस्ती नगरी में कुमार केशी श्रमण एवं गौतम - दोनों का आगमन हुआ । गौतम स्वामी पंचमहाव्रत मूलक धर्म की प्ररूपणा करते थे। जबकि कुमार केशी श्रमण चातुर्याम धर्म का उपदेश करते थे। इससे यह ऊहापोह होने लगा कि एक ही निर्ग्रन्थ परंपरा में यह दो प्रकार की प्ररूपणा कैसे है? गौतम स्वामी इस विषय में चर्चा करने हेतु केशीकुमार श्रमण के पास आए। केशी स्वामी ने उनका आदर किया। दोनों के बीच उन विषयों पर चर्चा हुई, जिनमें शाब्दिक दृष्टि से भेद सा दृष्टि गोचर होता था। उनमें मुख्य विषय पंच महाव्रत और चतुर्याम का था। उनके संबंध में कुमार केशीश्रमण ने जिज्ञासा की - - ६३ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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