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________________ उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - प्रयोगजनित पुद्गल परिणमन ६१ भावार्थ - राजा ने सुबुद्धि के कथन, प्रतिपादन, प्ररूपण पर विश्वास नहीं किया, प्रतीति नहीं की। उसे सुबुद्धि का कथन अरुचिकर लगा। ___ उसने अपने सतत सान्निध्य सेवी कर्मचारियों को बुलाया और कहा - देवानुप्रियो! तुम जाओ और कुम्हार की दुकान से नये घड़े और पानी छानने का वस्त्र लाओ यावत् सुबुद्धि प्रतिपादित जल-संस्कार-विधि से खाई के पानी को शुद्ध करो। सुरभि तथा स्वादवर्धक द्रव्य मिलाकर संस्कारित करो। . उन कर्मचारियों ने उसी विधि से जल को संस्कारित किया तथा राजा के समक्ष उपस्थित किया। राजा जितशत्रु ने उस उत्तम जल को चुल्लु में लेकर चखा। उसका स्वाद बड़ा ही उत्तम था यावत् वह समस्त इन्द्रिय और देह के लिए बड़ा ही सुखप्रद प्रतीत हुआ। राजा ने अमात्य को बुलाया और कहा - सुबुद्धि! तुमने सत् तत्त्व यावत् सद्भूत सत्यमूलक भावों का ज्ञान कहाँ से प्राप्त किया? सुबुद्धि अमात्य राजा से बोला-स्वामी! मैंने यह सत् तत्त्व यावत् एतद् विषयक ज्ञान जिनवाणी से प्राप्त किया। विवेचन - जैन दर्शन के अनुसार जगत् की प्रत्येक वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो द्रव्य और पर्याय मिलकर ही वस्तु कहलाती हैं। ऐसी कोई वस्तु नहीं जो केवल द्रव्य स्वरूप हो और पर्याय उसमें न हों। ऐसी भी कोई वस्तु नहीं जो एकान्त पर्यायमय हो, द्रव्य न हो। जीव द्रव्य हो किन्तु सिद्ध, देव, मनुष्य, तिर्यंच अथवा नारक पर्याय में से कोई भी न हो, यह असंभव है। सार यह कि प्रत्येक वस्तु में द्रव्य और पर्याय-दोनों अंश अवश्य ही विद्यमान होते हैं। . - जब द्रव्य-अंश को प्रधान और पर्याय अंश को गौण करके वस्तु का विचार किया जाता है तो उसे जैन परिभाषा के अनुसार द्रव्यार्थिकनय कहते हैं और जब पर्याय को प्रधान और द्रव्य को गौण करके देखा जाता है तब वह दृष्टि पर्यायार्थिकनय कहलाती है। दोनों दृष्टियाँ जब अन्योन्यापेक्ष होती हैं तभी वे समीचीन कही जाती हैं। वस्तु का द्रव्यांश नित्य, शाश्वत, अवस्थित रहता है, उसका न तो कभी विनाश होता है न उत्पाद। अतएव द्रव्यांश की अपेक्षा से प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन, ध्रुव ही है। मगर पर्याय नाशशील होने से क्षण-क्षण में उनका उत्पाद और विनाश होता रहता है। इसी कारण प्रत्येक पदार्थ उत्पाद, विनाश और ध्रौव्यमय है। भगवान् ने अपने शिष्यों को यह मूल तत्त्व सिखाया था - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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