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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපුදා अप्रिय, अमनोज्ञ, अमनोहर हूँ, जिससे तुमने नित्यप्रति भोजन वेला में उत्तम जल नहीं भेजा। देवानुप्रिय! यह उत्तम जल तुम्हें कहाँ से प्राप्त हुआ? तब सुबुद्धि अमात्य जितशत्रु से बोलास्वामी! यह उसी खाई का पानी है। इस पर जितशत्रु ने सुबुद्धि से कहा - यह खाई का जल कैसे हो सकता है? तब सुबुद्धि राजा से बोला - स्वामी! मैंने जब खाई के जल के संदर्भ में, पुद्गल परिणमन के विषय में कहा था, प्रज्ञापित किया था, तब आपने उस पर विश्वास नहीं किया। इस पर मेरे मन में विचार, चिंतन और संकल्प उत्पन्न हुआ कि राजा जितशत्रु सद्भूत तत्त्व यावत् सत्यमूलक भाव में विश्वास नहीं करते, प्रतीति नहीं करते तथा न इसे समझने में इन्हें रुचि ही है। इसलिए यह अच्छा होगा कि मैं राजा जितशत्रु को सत् यावत् सद्भूत तत्त्व के संदर्भ में, जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्ररूपित तत्त्व के बारे में अवगत कराऊँ। ऐसा मैंने निश्चय किया।
तदनंतर सुबुद्धि ने जल-शोधन की सारी प्रक्रिया बतलाते हुए राजा से कहा कि जल के अत्यंत शुद्ध स्वाद युक्त होने पर जलगृह अधिकारी को बुलाया और कहा-देवानुप्रिय! इस उत्तम जल को भोजन के समय राजा की सेवामें प्रस्तुत करो। स्वामी! इस प्रकार मूलतः यह खाई का ही जल है।
(२१) तए णं जियसत्तू राया सुबुद्धिस्स (अमच्चस्स) एवमाइक्खमाणस्स ४ एयमहें णो सद्दहइ ३ असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोयमाणे अन्भिंतरट्ठाणिजे पुरिसे सद्दावेइ २ ता एवं वयासी-गच्छह णं तुन्भे देवाणुप्पिया! अंतरावणाओ णव घडए पडए य गेण्हइ जाव उदगसंहारणिजेहिं दव्वेहिं संभारेह। तेवि तहेव संभारेंति २ त्ता जियसत्तुस्स उवणेति। तए णं से जियसत्तू राया तं उदगरयणं करयलंसि आसाएइ आसायणिजं जाव सव्विंदियगायपल्हायणिजं जाणित्ता सुबुद्धिं अमच्चं सद्दावेइ २ त्ता एवं वयासी-सुबुद्धी! एए णं तुमे संता तच्चा जाव सब्भूया भावा कओ उवलद्धा? तए णं सुबुद्धी जियसत्तुं एवं वयासी-एए णं सामी! मए संता जाव भावा जिणवयणाओ उवलद्धा। ___ शब्दार्थ - अरोयमाणे - अरोचमान-अरुचिकर मानता हुआ, अभिंतर हाणिजे - निरंतर सान्निध्य सेवी, संभारेह - संस्कारित करो।
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