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उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - मलिन जल का सुपेय जल में रुपांतरण
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भावार्थ - यों विचार कर सुबुद्धि ने विश्वस्त पुरुषों से ग्रामांतरवर्ती हाट से मिट्टी के नए घड़े और पानी छानने के लिए कपड़े मंगवाए। संध्याकाल के समय जब लोगों का आना-जाना बहुत कम था, वह खाई के पास गया। खाई के पानी को नए घड़ों में छनवाया। उस छने हुए पानी को फिर नए घड़ों में डलवाया। वैसा कर उन पर मुहर लगवा दी। सात दिन रात तक उनको वैसे ही पड़े रखा। फिर दूसरी बार उस पानी को नए घड़ों में छनवाया। छनवा कर नए घड़ों में डलवाया। उसमें साजी का खार या ताजी राख डलवायी। डलवा कर उन पर मोहर लगवाई। सात दिन रात तक उनको (पुनः) वैसे ही रहने दिया। तदनंतर तीसरी बार भी नए घड़ों में छनवाया यावत् मुद्रित कर सात-दिन रात के लिए रखवा दिया।
_ (१७) . एवं खलु एएणं उवाएणं अंतरा गलावेमाणे अंतरा पक्खिवावेमाणे अंतरा य विपरिवसावेमाणे २ सत्तसत्त य राइंदियाई विपरिवसावेइ। तए णं से फरिहोदए सत्तमंसि सत्तयंसि परिणममाणंसि उदगरयणे जाए यावि होत्था अच्छे पत्थे जच्चे तणुए फलिहवण्णाभे वण्णेणं उववेए ४ आसायणिज्जे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे।
शब्दार्थ - सत्तमंसि सत्तयंसि - सात सप्ताह में।। - भावार्थ - इस विधि से बीच-बीच में पानी को छनवाता रहा, घड़ों में डलवाता रहा और सात-सात दिन-रात तक उसे रखवाया जाता रहा। सात सप्ताह में शुद्ध होता हुआ वह उदक रत्न अति उत्तम पेय जल के रूप में परिणत हो गया। वह स्वच्छ, पथ्य, श्रेष्ठ, हल्का
और आभा में स्फटिक की तरह पारदर्शी, उत्तम गंध, वर्ण, रस एवं स्पर्श युक्त हो गया। आस्वादनीय यावत् समस्त इन्द्रिय और शरीर के लिए अत्यधिक आनंदप्रद बन गया।
(१८) तए णं सुबुद्धी अमच्चे जेणेव से उदगरयणे तेणेव उवागच्छइ २ त्ता करयलंसि आसादेइ २ त्ता तं उदगरयणं वण्णेणं उववेयं ४ आसायणिज्जे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिजं जाणित्ता हट्टतुट्टे बहूहिं उदगसंभारणिजेहि दव्वेहिं संभारेइ २ त्ता
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