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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र . පපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපපුද जियसत्तुस्स रण्णो पाणियपरियं सहावेइ २ ता एवं वयासी-तुमं च णं देवाणुप्पिया! इमं उदगरयणं गेण्हाहि.२ ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवणेजासि। शब्दार्थ - पाणियपरियं - जलागार के अधिकारी को। भावार्थ - अमात्य सुबुद्धि जहां पानी था, वहाँ आया। उस जल का चुल्लु-हथेली में लेकर आस्वादन किया। उसने पाया कि वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि सभी दृष्टियों से यह जल उत्तम हो गया है। यह आस्वादन योग्य है, यावत् सभी इन्द्रियों एवं शरीर के लिए आनंदप्रद है। इससे उसको बड़ी प्रसन्नता हुई। उसने फिर जल में सुरभित सुस्वादु बनाने वाले पदार्थ मिलाकर उसको संस्कारित किया। ___ फिर उसने जलागार के अधिकारी को बुलाया और उससे कहा - देवानुप्रिय! तुम इस उत्तम जल को ले जाओ, जब राजा जितशत्रु भोजन करें, तब इसे प्रस्तुत करो। (१९) तए णं से पाणियघरिए सुबुद्धियस्स एयमढें पडिसुणेइ २ ता तं उदगरयणं गिण्हाइ २ ता जियसत्तुस्स रण्णो भोयणवेलाए उवट्ठवेइ। तए णं से जियसत्तू राया तं विपुलं असणं ४ आसाएमाणे जाव विहरइ जिमियभुत्तुत्तरायया वि य णं जाव परमसुइभूए तंसि उदगरयणे जायविम्हए ते बहवे राईसर जाव एवं वयासीअहो णं देवाणुप्पिया! इमे उदगरयणे अच्छे जाव सव्विंदियगायपल्हायणिजे। तए णं ते बहवे राईसर जाव एवं वयासी-तहेव णं सामी! जण्णं तुन्भे वयह जाव एवं चेव पल्हायणिजे। भावार्थ - जलाधिकारी ने सुबुद्धि का कथन स्वीकार किया। उसने उत्तम जल को लिया तथा जितशत्रु राजा के भोजन के समय उसे उपस्थापित किया। राजा जितशत्रु ने यथेष्ट अशनपान आदि का आस्वादन लेते हुए यावत् भोजन किया। भोजन कर लेने के पश्चात् यावत् हाथमुंह आदि धोकर राजा स्वच्छ हुआ। उस उत्तम जल को पीया तो वह बहुत विस्मित हुआ। उसने अपने सान्निध्यवर्ती राजा, ऐश्वर्यशाली सामंत यावत् विशिष्टजनों से यों कहा-देवानुप्रियो! यह उदक रत्न कितना स्वच्छ यावत् समस्त इन्द्रिय एवं शरीर के लिए अत्यधिक आह्लादप्रद है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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