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उदकज्ञात नामक बारहवां अध्ययन - मनोज्ञ आहार की प्रशंसा
अहो णं देवाणुप्पिया! इमे मणुण्णे असणं ४ वण्णेणं उववेए जाव फासेणं उववेए अस्सायणिज्जे विस्सायणिज्जे पीणणिज्जे दीवणिज्जे दप्पणिज्जे मयणिज्जे बिंहणिज्जे सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे।
शब्दार्थ - उववेए - उपपेत-युक्त, अस्सायणिज़्जे - आस्वादन योग्य-स्वादिष्ट, विस्सायणिज्जे - विशेषतः आस्वादन योग्य, पीणणिज्जे - समस्त इन्द्रियों के लिए प्रीतिजनक, दीवणिज्जे - दीपनीय-जठराग्नि को दीप्त करने वाले, दप्पणिज्जे - बलजनित-दर्पोत्पादक, मयणिज्जे - मदनीय-कामोद्दीपक, बिंहणिज्जे - बृंहणीय-देह की समस्त धातुओं के संवर्धक, सव्विंदियगायपल्हायणिज्जे - समस्त इन्द्रिय तथा शरीर के लिए अत्यंत आह्लादोत्पादक।
भावार्थ - देवानुप्रियो! यह मनः तुष्टिकर, अशनादि रूप. चतुर्विध आहार कितने उत्तम वर्ण से यावत् उत्तम स्पर्श से युक्त है? यह आस्वादनीय, विस्वादनीय, प्रीणनीय, दीपनीय, दर्पनीय, मदनीय, बृंहणीय तथा समस्त इन्द्रियों एवं शरीर के लिए कितना आह्लादनीय है ?
तएणं ते बहवे ईसर जाव पभियओ जियसत्तुं एवं वयासी - तहेवणं सामी! जण्णं तुब्भे वयह - अहो णं इमे मणुण्णे असणे ४ वण्णेणं उववेए जाव पल्हायणिज्जे।
भावार्थ - राजा के यों कहने पर उन अधीनस्थ राजा, ऐश्वर्यशाली पुरुष यावत् सार्थवाह प्रभृति विशिष्टजन बोले - स्वामी! जैसा आप कहते हैं, वैसा ही है। यह प्रीतिप्रद अशन-पानादि चतुर्विध आहार वर्ण, स्पर्श आदि में बहुत ही मोहक है यावत् अत्यधिक आह्लादजनक है।
तए णं जियसत्तू सुबुद्धिं अमच्चं एवं वयासी-अहो णं सुबुद्धी! इमे मणुण्णे असणे ४ जाव पल्हायणिज्जे। तए णं सुबुद्धी जियसत्तुस्स रणो एयमढें णो आढाई जाव तुसिणीए संचिट्ठइ।
भावार्थ - सुबुद्धि के अलावा दरबार में स्थित विशिष्टजनों द्वारा आहार की उत्तमता का समर्थन किए जाने के अनंतर राजा जितशत्रु के अमात्य सुबुद्धि से कहा-सुबुद्धि! यह मनोज्ञ अशन-पान आदि चतुर्विध आहार यावत् कितना आह्लादजनक है।
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