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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
फासेणं से जहाणामए अहिमडेइ वा गोमडेइ वा जाव मयकुहियविणट्ठकिमिण वावण्ण दुरभिगंधे किमिजालाउले संसत्ते असुइविगय बीभच्छदरिसणिज्जे। भवेयारूवे सिया? णो इणढे समढे। एत्तो अणि?तराए चेव जाव गंधेणं पण्णत्ते।
शब्दार्थ - फरिहोदए - परिखोदक-खाई में पानी, पोच्चडे - मिश्रित, कुहिय - कुत्थितसड़े हुए, वावण्ण - व्यापन्न-व्याप्त, किमिजालाउले - कीड़ों के समूह से युक्त।
भावार्थ - उस चंपा नगरी के बाहर उत्तर पूर्व दिशा भाग में एक खाई थी। इसमें पानी भरा था। वह पानी, मेद, चर्बी, मांस, रक्त, मवाद से मिश्रित आपूरित था। मृत शरीरों से व्याप्त था। अतः उसका वर्ण अमनोज्ञ था यावत् उसकी गंध, स्पर्श आदि सभी घृणोत्पादक थे। किसी मरे हुए साँप अथवा गाय यावत् मरे हुए, सड़े हुए कृमि समूह की दुर्गंध से व्याप्त था। उसमें जीवित कीड़ों के समूह बिलबिलाते थे। वह देखने में अशुचि, विकृत और घिनौना था। __ . क्या इतना ही था? नहीं वह इससे भी अधिक अनिष्टतर यावत् दुर्गंधयुक्त था। ऐसा कहा गया है।
मनोज्ञ आहार की प्रशंसा ,
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तए णं से जियसत्तू राया अण्णया कयाइ ण्हाए कयबलिकम्मे जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे बहूहिं ईसर जाव सत्थवाह पभिईहिं सद्धिं (भोयणमंडवंसि) भोयणवेलाए सुहासणवरगए विउलं असणं ४ जाव विहरइ जिमियभुत्तुत्तरागए जाव सुइभूए तंसि विपुलंसि असणंसि ४ जाव जायविम्हए ते. बहवे ईसर जाव पभिईए एवं वयासी -
भावार्थ - एक बार का प्रसंग है, राजा जितशत्रु ने स्नान, नित्य-नैमित्तिक कर्म आदि कर यावत् थोड़े किंतु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। बहुत से अधीनस्थ राजा, ऐश्वर्य शाली पुरुष यावत् सार्थवाह आदि के साथ भोजन के समय सुखासन में स्थित होते हुए उसने चतुर्विध आहार का सेवन किया। फिर हाथ-मुँह आदि धोकर शुद्ध हुआ। तदनंतर उसने विपुल अशन यावत् चतुर्विध आहार के संबंध में आश्चर्य करते हुए उनसे कहा।
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