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दावद्रव नामक ग्यारहवां अध्ययन - सर्वाराधक की भूमिका
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भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! इस प्रकार आचार्य-उपाध्याय से प्रव्रजित साधु-साध्वी, बहुत से साधुओं-साध्वियों-श्रावकों-श्राविकाओं तथा अन्यतीर्थिक साधुओं-गृहस्थों के विपरीत वचनों को सम्यक् सहन करता है, उसको मैंने सर्वाराधक कहा है।
हे गौतम! इस प्रकार जीव आराधक एवं विराधक होते हैं।
विवेचन - उपर्युक्त चारों भंगों में 'अन्यतीर्थी' का अर्थ अन्य मत वाले (३६३ पाषण्ड मत वाले) साधु आदि एवं गृहस्थी' का अर्थ उन अन्यतीर्थियों के मतानुयायी गृहस्थ समझना चाहिए। श्रावक एवं श्राविका का इनमें ग्रहण नहीं हुआ है क्योंकि उनको तो स्पष्ट रूप से चतुर्विध संघ के नाम देकर अलग ही बताया गया है। ...
(१२) एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अयमढे पण्णत्ते त्तिबेमि।
भावार्थ- आर्य सुधर्मा स्वामी ने कहा- हे जंबू! श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने ग्यारहवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। जैसा मैंने उनसे श्रवण किया, वही कहता हूँ।
गाहाओ - जह दावद्दवतरुवणमेवं साहू जहेव दीविच्चा। वाया तह संमणाइय सपक्खवयणाई दुसहाई॥ १॥ जह सामुद्दयवाया तहऽण्णतित्थाइकडुयवयणाई। कुसुमाइसंपया जह सिवमग्गाराहणा तह उ॥ २॥ जह कुसुमाइविणासो सिवमग्ग विराहणा तहा णेया।
जह दीववाउजोगे बहु इड्डी. ईसि य अणिड्डी॥ ३॥ . तह साहम्मियवयणाण सहमाणाराहणा भवे बहुया। इयराणमसहणे पुण सिवमग्गविराहणा थोवा ॥ ४॥ जह जलहिवाउजोगे थेविड्डी बहुयरा यऽणिड्डी य। तह परपक्खक्खमणे आराहणमीसि बहु य यरं॥ ५॥
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