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ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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सर्वविराधक का लक्षण
(E) समणाउसो! जया णं णो दीविच्चगा णो सामुद्दगा ईसिं पुरेवाया पच्छावाया. जाव महावाया वायंति तए णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा जुण्णा झोडा०।
भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! जब समुद्रवर्ती द्वीप एवं समुद्र से आने वाली पूर्वी और पश्चिमी मन्द हवा यावत् प्रचण्ड हवा नहीं बहती तब सब दावद्रव वृक्ष जीर्ण निष्पत्र यावत् म्लान हो जाते हैं, मुरझाए रहते हैं।
. एवामेव समणाउसो! जाव पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं ४ बहूणं अण्णउत्थियगिहत्थाणं णो सम्मं सहइ एस णं मए पुरिसे सव्वविराहए पण्णत्ते। ___ भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! यावत् आचार्य, उपाध्याय से प्रव्रजित हुए साधु तथा साध्वी, बहुत से साधु साध्वियों-श्रावक-श्राविकाओं तथा बहुत से अन्यतीर्थिक साधुओं एवं गृहस्थों के : विपरीत वचनों को सम्यक् प्रकार से सहन नहीं करता, उसको मैंने सर्वविराधक कहा है।
सर्वाराधक की भूमिका
(१०) . समणाउसो! जया णं दीविच्चगा वि सामुद्दगा वि ईसिं पुरेवाया पच्छावाया जाव वायंति तया णं सव्वे दावद्दवा रुक्खा पत्तिया जाव चिटुंति।
भावार्थ - हे आयुष्मान् श्रमणो! जब समुद्रवर्ती द्वीप एवं समुद्र से आने वाली पूर्वीपश्चिमी मंद हवा तथा प्रचंड हवा बहती है, तब सभी दावद्रव वृक्ष पत्र-पुष्प-फल युक्त रहते हैं, यह भी एक स्थिति है।
(११
एवामेव समणाउसो! जो अहं पव्वइए समाणे बहूणं समणाणं ४ बहूणं अण्णउत्थियगिहत्थाणं सम्म सहइ एस णं मए पुरिसे सव्वआराहए पण्णत्ते (समणाउसो!)। एवं खलु गोयमा! जीवा आराहगा वा विराहगा वा भवंति।
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