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जह उभयवाउविरहे सव्वा तरुसंपया विणट्ठ त्ति । अणिमित्तोभयमच्छररूवे विराहणा तह य ॥ ६ ॥ जह उभयवाउजोगे सव्वसमिड्डी वणस्स संजाया । तह उभयवयणसहणे सिवमग्गाराहणा वृत्ता ॥ ७ ॥ ता पुण्ण समणधम्माराहणचित्तो सया महासत्तो । सव्वेण वि कीरतं सहेज्ज सव्वं पि पडिकूलं ॥ ८ ॥ ॥ एक्कारसमं अज्झयणं समत्तं ॥
ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र
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शब्दार्थ थोवा - स्तोक-थोड़ी |
भावार्थ जैसे दावद्रव वृक्ष हैं, वैसे साधु हैं । द्वीप में आने वाली वायु श्रमण-श्रमणी - श्रावक-श्राविका आदि अपने पक्ष से आने वाले दुर्वचन - प्रतिकूल वचन हैं ॥ १ ॥
समुद्र से आने वाली प्रचण्ड वायु ही अन्यतीर्थिकों के दुर्वचन हैं, पुष्प आदि की संपदा शिवमार्ग मोक्ष पद की आराधना है ॥ २ ॥
कुसुम आदि के विनाश को मुक्ति-मार्ग की विराधना जानना चाहिए। जैसे द्वीपवर्ती वायु के योग से ऋद्धि संपन्नता अधिक होती है, असंपन्नता न्यून होती है ॥ ३ ॥
साधर्मिकों के वचनों को सहन करना अधिक आराधना है, दूसरों के वचनों को न सहना शिवमार्ग की थोड़ी विराधना है ॥ ४ ॥
जैसे समुद्र की प्रचण्ड हवा के वेग से ऋद्धि-संपन्नता कम होती है, असंपन्नता अधिक होती है। उसी प्रकार परमतवादियों के वचन को सहने से आराधना कम होती है, विराधना अधिक होती है॥ ५॥
द्वीप और समुद्र- दोनों की हवाएँ न होने पर वृक्षों की समस्त संपदा विनष्ट हो जाती है, उसी प्रकार बिना कारण के दोनों (स्व पक्ष और पर पक्ष ) के प्रति मत्सरभाव होने से सर्व विराधना कही गई है ॥ ६ ॥
दोनों प्रकार की हवाओं के योग से वन के वृक्ष सब प्रकार से समृद्ध होते हैं, वैसे ही दोनों प्रकार के वचन सहने से शिवमार्ग की आराधना बतलाई गई है ॥ ७ ॥
परिपूर्ण श्रमण धर्म की आराधना में जिसका चित्त होता है, उस महापुरुष को सभी द्वारा क जाता प्रतिकूल वचन सहना चाहिये और उसी के मोक्ष मार्ग की सर्वाराधना कही गई है ॥ ८ ॥ ॥ ग्यारहवां अध्ययन समाप्त ॥
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