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________________ .२६ . माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का दुष्प्रयास sccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccccck थि(छि)ण्ण णिक्किव अकयण्णुय सिढिलभाव णिल्लज लुक्ख अकलुणजिणरक्खिय मज्झं हिययरक्खगा॥४॥ ण हु जुज्जसि एक्कियं अणाहं अबंधवं तुज्झ चलण ओवायकारियं उज्झिउमह(ध)ण्णं। गुण संकर! अहं तुमे विहूणा ण समत्था (वि) जीविङ खणंपि॥५॥ शब्दार्थ - होल - मुग्ध, वसुल - सुकुमार, गोल - कठोर, णित्थक्क - अनवसरज्ञसीधे, भोले, जुजसि - योग्य, चलण ओवायकारियं - चरण सेविका को, उज्झिउं - त्यागना, अहण्णं - अधन्या, गुण संकर - गुण सागर। भावार्थ - मुग्ध! सुकुमार! कठोर! नाथ! स्नेह भोजन! प्रिय! रमण! कांत। स्वामि! घृणाशून्य! अनवसरज्ञ! निर्लज! रूक्ष! करुणाविहीन! मेरे हृदय की रक्षा करने वाले जिन रक्षित! तुम मुझ अनाथ बंधुहीन, चरणसेविका को अकेली छोड़ कर जा रहे हो, यह तुम्हारे लिए उचित नहीं है। हे गुण सागर! तुम्हारे बिना मैं एक क्षण भर भी जीवित रहने में समर्थ नहीं हूँ। (५३) इमस्स उ अणेगझसमगरविविधसावयसयाउलघरस्स। रयणागरस्स मज्झे अप्पाणं वहेमि तुज्झ पुरओ एहि णियत्ताहि जइ सि कुविओ खमाहि एक्कावराह मे॥६॥ शब्दार्थ - रयणागरस्स - समुद्र के, अप्पाणं - स्वयं को, वहेमि - डाल देती हूँ, णियत्ताहि - वापस लौट जाओ। भावार्थ - सैकड़ों-सैकड़ों मत्स्यों, मगरों और विविध प्रकार के जलचर प्राणियों से व्याप्त इस समुद्र के बीच मैं तुम्हारे सामने ही अपने आपको डाल दूंगी-डूब मरूँगी। इसलिए हे जिनरक्षित! आओ, वापस लौट आओ। यदि तुम कुपित हो तो एक बार तो मुझे माफ कर दो। तुज्झ य विगयघण विमलससिमंडल गारसस्सिरीयं सारयणव कमल कुमुद कुवलय विमलदलणिकर सरिस णिभणयणं वयणं पिवासागयाए सद्दा मे पेच्छिउँ जे अवलोएहि ता इओ ममं णाह जा ते पेच्छामि वयणकमलं॥७॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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