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ज्ञाताधर्मकथांग सत्र
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.. (४८) गाथाएं - तए णं सा पवररयणदीवस्स देवया ओहिणा (उ) जिणरक्खियस्स मणं। .. णाऊण वधणिमित्तं उवरि मागंदियदारगाणं दोण्हंपि॥१॥ शब्दार्थ - णाऊण - जानकर।
भावार्थ - उत्तम रत्न द्वीप की देवी ने अवधि (विभंग ज्ञान) द्वारा जिनरक्षित के मनोगत भावों को जाना। वह माकंदी पुत्रों को मारने का दुर्भाव लिए यों बोली -
(४६) दोसकलिया सललियं णाणाविहचुण्णवासमीसं दिव्यं। घाणमणणिव्युइकरं सव्वोउयसुरभिकुसुमवुट्टि पमुंचमाणी॥२॥
शब्दार्थ - दोसकलिया - दोष युक्त, चुण्णवासमीसं - पिष्ट सुगंधित द्रव्यों से मिश्रित, घाण - घ्राण-नासिका, णिव्वुइकरं - तृप्तिप्रद।
भावार्थ - द्वेष से भरी हुई उस देवी ने लीला पूर्वक कृत्रिम क्रीड़ा भाव दिखाते हुए, तरह-तरह के सुगंधित द्रव्यों से मिश्रित, नासिका को तृप्त करने वाली, समस्त ऋतुओं में खिलने वाले फूलों की सुगंध से परिपूर्ण फूलों की वृष्टि करते हुए कहा। ..
(५०) णाणामणिकणगरयण घंटिय खिखिणिणेऊरमेहलभूसणरवेणं। दिसाओ विदिसाओ पूरयंती वयणमिणं बेइ सा सकलुसा॥३॥
भावार्थ - वह पापिनी विभिन्न मणि, स्वर्ण तथा रत्नों के छोटे-बड़े पुंघरु, नुपूर और मेखला इन सभी आभूषणों के शब्दों से सभी दिशाओं-विदिशाओं को पूरित करती हुई इस प्रकार कहने लगी।
(५१) होल वसुल गोल णाह दइत, पिय रमण कंत सामिय णिग्घिण णित्थक्क।
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