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माकन्दी नामक नववां अध्ययन - देवी का दुष्प्रयास SCORGEORGEOGRECOGEOGODGEDEOCSOCKERacecacakKOOGODOGK मोहियाणि य ताहे णं तुन्भे सच्चाई अगणेमाणा मम विप्पजहाय सेलएणं सद्धिं लवण समुदं मज्झंमज्झेणं वीईवयह। .
शब्दार्थ - ललियाणि - अभीप्सित भोजन आदि का उपभोग, कीलियाणि - क्रीड़ा, . हिण्डियाणि - उद्यान आदि में भ्रमण, मोहियाणि - काम क्रीड़ाएं।
भावार्थ - रत्नद्वीप देवी जब बहुत से प्रतिकूल उपसर्गों का भय दिखा कर माकंदी पुत्रों को चलित, क्षुभित और विपरिणामित नहीं कर सकी, तो उसने बहुत से मधुर, श्रृंगारोपेत और करुणापूर्ण उपसर्गों द्वारा उनको प्रभावित करने का प्रयास किया।
वह बोली - माकंदी पुत्रो! तुमने मेरे साथ हास-परिहास किया है, अभीप्सित भोजनादि का भोग किया, खेले-कूदे हो, उद्यानादि में भ्रमण किया है और रति क्रीड़ाएँ की हैं। इन सबको कुछ भी न मानते हुए-उपेक्षा करते हुए, मुझे छोड़ कर शैलक यक्ष के साथ चले जा रहे हो।
(४७) तए णं सा रयणदीवदेवया जिणरक्खियस्स मणं ओहिणा आभोएइ २ त्ता एवं वयासी-णिच्वंपि य णं अहं जिणपालियस्स अणिट्ठा ५। णिच्वं मम जिणपालए अणिढे ५। णिच्वंपि य णं अहं जिणरक्खियस्स इट्टा ५। णिचंपि य ण ममं जिणरक्खिए इढे ५। जइ णं ममं जिणपालिए रोयमाणिं कंदमाणिं सोयमाणिं तिप्पमाणिं विलवमाणिं णावयक्खइ किण्णं तुमं (पि) जिणरक्खिया! ममं रोयमाणि जाव णावयक्खसि?
भावार्थ - तब रत्न द्वीप देवी ने जिनरक्षित के अस्थिर मन को, चंचल मनोगत भावों को अवधि (विभंग ज्ञान) से देखा और बोली-जिनपालित के लिए मैं सदैव अनिष्ट, अप्रिय, अकान्त
और अमनोहर रही हूँ। मेरे लिए भी जिनपालित वैसा ही रहा है। मैंने उसे कभी नहीं चाहा। जिनरक्षित के लिए मैं सदैव इष्ट, कांत, प्रिय, मनोज्ञ, मनोहर रही हूँ। जिनरक्षित भी मेरे लिए ऐसा ही रहा है। मैं सदा उसे हृदय से चाहती रही हूँ। यदि जिनपालित मुझे रोते हुए, क्रंदन करते हुए, शोक करते हुए, आंसू बहाते देखकर मेरी ओर जरा भी ध्यान नहीं देता तो जिनरक्षित क्या तुम भी मुझे रोते हुए यावत् विलाप करते हुए मेरी ओर देख कर ध्यान नहीं दोगे? ..
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