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________________ ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र २७२ SBOROOE जह सच्छंद विहारी आसाणं तह य इह वरमुणीणं । जरमरणाइं विवज्जिय संपत्त्राणंदणिव्वाणं ॥ ३ ॥ जह सद्दाइसु गिद्धा बद्धा आसा तहेव विसयरया । पावेंति कम्म बंधं परमासुहकारणं घोरं ॥ ४ ॥ जह ते कालियदीवा णीया अण्णत्थ दुहगणं पत्ता । तह धम्मपरिब्भट्ठा अधम्मपत्ता इहं जीवा ॥ ५ ॥ पावेंति कम्मणरवइवसया संसार वाहयालीए । आसप्पमद्दएहि व णेरइयाइहिं दुक्खाई ॥ ६ ॥ ।। सत्तरसमं अज्झयणं समत्तं ॥ उपनय गाथाओं का भावार्थ - जैसा कालिक द्वीप था, वैसा ही अनुपम सुखमय साधु धर्म है। जिस तरह वहाँ घोड़े थे, उसी प्रकार साधु हैं । जो अनुकूल स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं, वे वणिकजनों की तरह हैं अर्थात् उन्होंने घोड़ों के स्वतंत्र जीवन में बाधा उत्पन्न नहीं की ॥१॥ जो घोड़े शब्द आदि में अमूच्छित, अलोलुप बने, वे जाल या फंदे के बंधन में नहीं आए। उसी प्रकार जो साधु विषयों में अलोलुप, अनासक्त बने रहते हैं, वे कर्मों के बंधन में नहीं पड़ते॥२॥ जो लोलुप नहीं बने वे घोड़े कालिकद्वीप में स्वच्छंदता पूर्वक विचरण करते रहे। उसी प्रकार भोग में अलोलुप श्रेष्ठ साधु जरा, मृत्यु को जीत कर परम निर्वाण प्राप्त करते हैं ॥३॥ GODDESSH शब्दादि में मूर्च्छित बने घोड़ों की तरह जो साधु विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे कर्मों के बंधन में पड़ते रहते हैं, जो घोर दुःख का कारण है ॥ ४ ॥ कालिक द्वीप से लाए गए घोड़े घोर अनर्थ और दुःख में पड़े, उसी तरह जो जीव धर्म से भ्रष्ट होकर अधर्म में संलग्न हो जाते हैं, वे राजा द्वारा मर्दित, पीड़ित, उद्वेलित घोड़ों की तरह कर्म रूपी राजा के कारण नारकीय आदि घोर दुःखों को पाते हैं ॥५, ६ ॥ Jain Education International ॥ सतरहवाँ अध्ययन समाप्त ! For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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