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________________ आकीर्ण नामक सतरहवां अध्ययन अकस्मात कालिकद्वीप पहुँचने का संयोग ************--------------¤¤¤¤ÃOC¤¤¤¤0000* - जो विभिन्न ऋतुओं में प्राप्य, हृदय को सुख देने वाले स्पर्श जन्य भोगों में लिप्त नहीं रहते, वे आर्त्तध्यानमय शोकान्वित मृत्यु प्राप्त नहीं करते ॥ १५ ॥ श्रमण को चाहिए कि वह भद्र अनुकूल भक्ति पूर्ण श्रोत्र विषयों में कभी भी परितोष न माने और अशुभ, अश्रद्धामय वचनों को सुनने पर कभी भी रुष्ट न हों ॥ १६ ॥ साधु शुभ या अशुभ चक्षु विषयों के प्राप्त होने में न तो कभी संतुष्ट ही हों और न कभी दुःखित ही हो ॥१७॥ साधु मनोज्ञ-अमनोज्ञ, घ्राणेन्द्रिय संबंधी पदार्थों के प्राप्त होने पर न तो कभी संतुष्ट ही हों और न कभी रूष्ट या उद्विग्न ही बनें ॥ १८ ॥ श्रमणों को चाहिए कि वे रसना के अनुकूल शुभ, सुखद पदार्थों के प्राप्त होने पर कभी भी सुख या संतोष का अनुभव न करें तथा प्रतिकूल पदार्थ प्राप्त करने पर कभी रोष न करें ॥१६॥ साधु को जब स्पर्शनेन्द्रिय संबंधी अनुकूल विषय - पदार्थ स्वायत्त हों (प्राप्त हों) तो उन्हें सुखाचित या परितोषान्वित नहीं होना चाहिए तथा न तद्विपरीत पदार्थों की प्राप्ति पर दुःखान्वित ही अनुभव करना चाहिए ॥२०॥ (३१) एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सत्तरसमस्स णायज्झयणस्स अयमट्ठे पण्णत्ते त्ति बेमि । २७१ भावार्थ श्री सुधर्मा स्वामी ने कहा हे जंबू! श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने यावत् जिन्होंने मोक्ष प्राप्त कर लिया, सतरहवें ज्ञाताध्ययन का यह अर्थ बतलाया है। जैसा मैंने श्रवण किया, वैसा ही कहता हूँ। उवणय. गाहाओ - - Jain Education International जह सो कालियदीवो अणुवमसोक्खो तहेव जइधम्मो । जह आसा तह साहू वणियव्वऽणुकूलकारिजणा ॥ १ ॥ जह सद्दाइ अगिद्धा पत्ता णो पासबंधणं आसा । तह विसएसु अगिद्धा बज्झति ण कम्मणा साहू ॥ २ ॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
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