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आकीर्ण नामक सतरहवां अध्ययन - अकस्मात कालिकद्वीप पहुंचने का संयोग २५६ Geenaceaweecccccccccccccccccccccccccccccccccccx
भावार्थ - राजा कनककेतु ने उन व्यापारियों की महत्त्वपूर्ण यावत् बहुमूल्य भेंट को स्वीकार किया।
(१२) पडिच्छित्ता ते संजुत्ताणावावाणियगा एवं वयासी-तुन्भे णं देवाणुप्पिया! गामागर जाव आहिंडह लवण समुदं च अभिक्खणं २ पोय वहणेणं ओगाह(हे)ह, तं अत्थियाई केइ भे कहिं चि अच्छेरए दिट्ठपुव्वे? तए णं ते संजुत्ताणावावाणियगा कणगकेउं एवं वयासी-एवं खलु अम्हे देवाणुप्पिया! इहेव हत्थिसीसे णयरे परिवसामो तं चेव जांव कालियदीवंतेणं संछूढा। तत्थ णं बहवे हिरण्णागरा य जाव बहवे तत्थ आसे किं ते? हरिरेणु जाव अणेगाई जोयणाई उन्भमंति। तए णं सामी! अम्हेहिं कालिय दीवे ते आसा अच्छेरए दिट्ठपुव्वे। ... भावार्थ - राजा ने उन सांयात्रिक नौका वणिकों से कहा - देवानुप्रियो! तुम लोग अनेक. गांव, नगर यावत् भिन्न-भिन्न स्थानों में घूमते रहे हो, लवण समुद्र को बार-बार अवगाहित करते रहे हो। क्या कहीं तुमने कोई विलक्षण आश्चर्य देखा? ___तब उन व्यापारियों ने राजा कनककेतु से कहा - देवानुप्रिय! हम इसी हस्तिशीर्ष नगर में निवास करते हैं। यहाँ से हम समुद्री यात्रा करते हुए यावत् भयानक समुद्री तूफान का सामना करते हुए कालिक द्वीप पहुंच गए। वहाँ हमने स्वर्ण, चांदी एवं हीरों की बहुत सी खाने देखी तथा बहुत से अश्व भी देखे, जिनके शरीर पर हरी, काली, नीली धारियाँ थीं यावत् उन अश्वों ने ज्यों ही हमें देखा, हमारी गंध पाकर योजनों पर्यंत दौड़ पड़े। स्वामी! हमने कालिक द्वीप में उन घोड़ों के रूप में विलक्षण आश्चर्य देखा। .
_ (१३) .. . तए णं से कणगकेऊ तेसिं संजुत्तगाणं अंतिए एयमटुं सोचा ते संजुत्तए एवं वयासी-गच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया! मम कोटुंबिय पुरिसेहिं सद्धिं कालियदीवाओ ते आसे आणेह। तए णं ते संजुत्तावाणिवगा कणगकेउं एवं वयासी-एवं सामित्ति कट्ट आणाए विणएणं वयणं पडिसुणेति।
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