SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 287
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५८ . .. ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र accompooccccccccccccccccccccccccernococccccccccce तए णं ते संजुत्ता णावावाणियगा अण्णमण्णं एवं वयासी-किण्हं अम्हे देवाणुप्पिया! आसेहिं? इमे णं बहवे हिरण्णागरा य सुवण्णागरा य रयणागरा य वइरागरा य। तं सेयं खलु अम्हं हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य पोयवहणं भरित्तए -त्तिकट्ट अण्णमण्णस्स एयमढे पडिसुणेति २ ता हिरण्णस्स य सुवण्णस्स य रयणस्स य वइरस्स य तणस्स य कट्ठस्स य अण्णस्स य पाणियस्स य पोयवहणं भरेंति २ त्ता पयक्खिणाणुकूलेणं वाएणं जेणेव गंभीर पोयवहण पट्टणे तेणेव उवागच्छंति २ पोयवहयणं लंबेति २ त्ता सगडी सागडं सजेंति २ त्ता तं हिरण्णं जाव वइरं च एगट्टियाहिं पोयवहणाओ संचारेंति २ त्ता सगडीसागडं संजोइंति० जेणेव हत्थिसीसए णयरे तेणेव उवागच्छंति २ त्ता हत्थिसीसयस्स णयरस्स बहिया अग्गुजाणे सत्थणिवेसं करेंति २ ता सगडी सागडं मोएंति २ त्ता महत्थं जाव पाहुडं गेहंति २ त्ता हत्थि सीसं च णयरं अणुप्पविसंति २त्ता जेणेव से कणगकेऊ राया तेणेव उवागच्छंति २ त्ता जाव उवणेति। भावार्थ - तब उन सांयात्रिक व्यापारियों ने परस्पर यों कहा - देवानुप्रियो! हमें इन अश्वों से क्या प्रयोजन है? ये बहुत सी चांदी, सोने, रत्न की खाने सामने हैं। अच्छा यही है हम इनमें से चांदी, सोने, रत्न एवं हीरों से जहाज को भरले। सभी ने इस बात को स्वीकार किया और उन्होंने चांदी, सोने, रत्न एवं हीरों से तथा तृण, अन्न, काष्ठ तथा पानी से जहाज को भरा। अनुकूल दक्षिण वायु चलने पर रवाना हुए। चलते-चलते गंभीर पोतवहन पट्टन बंदरगाह पर पहुंचे। वहाँ आकर जहाज के लंगर डाले। गाड़े-गाड़ियाँ तैयार करवाए। चांदी यावत् हीरे आदि को जहाज से नौकाओं में उतारा। नौकाओं को किनारे पर लाकर उनसे गाड़े-गाड़ियों में उनको भरा। ऐसा कर वे हस्तिशीर्ष नगर के पास पहुंचे। नगर के बहिर्वर्ती प्रमुख उद्यान में उन्होंने पड़ाव डाला। गाड़ेगाड़ियों खोली यावत् बहुमूल्य, राजा योग्य भेंट लेकर वे हस्तिशीर्ष नगर में प्रविष्ट हुए। राजा कनककेतु की सेवामें पहुंचे यावत् उन्हें बहुमूल्य उपहार भेंट किए। (११) तए णं से कणगकेऊ तेसिं संजुत्ताणावावाणियगाणं तं महत्थं जाव पडिच्छइ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004197
Book TitleGnata Dharmkathanga Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages386
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_gyatadharmkatha
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy